भारत के नीति निर्देशक तत्व
Policy Principles of India
भारत के नीति निर्देशक तत्व Policy Principles of India
संविधान के अनुच्छेद-37 में कहा गया है कि विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा| संविधान के अनुच्छेद 355 और 365 का प्रयोग इन नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए किया जा सकता है|
नीति निर्देशक तत्व -आयरलैण्ड से लिया गया है
भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्व
- अनुच्छेद 36 इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, ''राज्य'' का वही अर्थ है जो भाग 3 में है।
- अनुच्छेद 37 इस भाग में अंतर्विष्ट तत्वों का लागू होना।
- अनुच्छेद 38 राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।
- अनुच्छेद 39 राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व।
- अनुच्छेद 39क समान न्याय और नि:शुल्क विधिक सहायता।
- अनुच्छेद 40 ग्राम पंचायतों का संगठन।
- अनुच्छेद 41 कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार।
- अनुच्छेद 42 काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबंध।
- अनुच्छेद 43 कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि।
- अनुच्छेद 43क उद्योगों के प्रबंध में कार्मकारों का भाग लेना।
- अनुच्छेद 44 नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता।
- अनुच्छेद 45 बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध।
- अनुच्छेद 46 अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि।
- अनुच्छेद 47 पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य को सुधार करने का राज्य का कर्तव्य।
- अनुच्छेद 48 कृषि और पशुपालन का संगठन।
- अनुच्छेद 48क पर्यावरण का संरक्षण और संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा।
- अनुच्छेद 49 राष्ट्रीय महत्व के संस्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण देना।
- अनुच्छेद 50 कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण।
- अनुच्छेद 51 अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि।
नीति निर्देशक तत्वों को तीन भागों में बांटा गया है।
1) सामाजिक और आर्थिक चार्टर
- न्याय पर आधारित सामाजिक संरचना-अनुच्छेद 38(1) में कहा गया है कि ‘राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की ,जिसमें सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं को अनुप्राणित करे ,भरसक प्रभावी रूप में स्थापना और संरक्षण करके लोक कल्याण की अभिवृद्धि का प्रयास करेगा|’
- आर्थिक न्याय-अनुच्छेद 39 कहता है कि राज्य अपनी नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि पुरुष और स्त्री नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो,पुरुषों और स्त्रियों को दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हो,पुरुष और स्त्री कामगारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो और बालकों को स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दिए जाएँ तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाये|
- अनुच्छेद 38 और 39 वितरणमूलक न्याय के सिद्धांत को साकार करता है,जिसमे सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थापना का निर्देश दिया गया है ताकि सभी तरह की सामाजिक असमानताओं को समाप्त किया जा सके।
2) सामाजिक सुरक्षा चार्टर
- a) उद्योगों के प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी (अनुच्छेद- 43 क);कुछ दशाओं,जैसे बेकारी,बुढ़ापा,बीमारी और निशक्तता,में काम,शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार (अनुच्छेद-41);कम करने की न्यायसंगत और मानवोचित दशाएं(अनुच्छेद-42);कामगारों के लिए निर्वाह मजदूरी (अनुच्छेद-43);बच्चों को,जब तक वे 14 वर्ष की आयु प्राप्त नहीं कर लेते तब तक,निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना(अनुच्छेद-45);हालाँकि,86वें संविधान संशोधन,2002 के बाद अनुच्छेद-45 में यह वर्णित है कि “राज्य सभी बालकों को छः वर्ष की आयु पूरी होने तक प्रारंभिक बचपन की देखभाल और शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा”;पोषाहार स्तर और जीवन स्तर में सुधार करना (अनुच्छेद-47), जिसमे विशेष रूप से मद्यपान निषेध शामिल है;दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि करना (अनुच्छेद-46);आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को सामान न्याय और निशुल्क विधिक सहायता (अनुच्छेद-39क)|
3) सामुदायिक कल्याण चार्टर
- a) समान नागरिक संहिता:अनुच्छेद 44,वैसे तो राज्य ने हिन्दू पर्सनल लॉ(जोकि सिखों,जैनों और बौद्धों पर भी लागू होता है) में सुधार करने और संहिताबद्ध करने का प्रयास किया है लेकिन अभी तक मुस्लिमों,ईसाईयों और पारसियों को सामान नागरिक संहिता के तहत लेन के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया है|
- b) कृषि और पशुपालन का संगठन: अनुच्छेद-48
- c) वन तथा वन्यजीवों का संरक्षण व संबर्धन: अनुच्छेद-48क
- d) स्मारकों का संरक्षण: अनुच्छेद-49
- e) कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण: अनुच्छेद-50
- f) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि: अनुच्छेद-51| अनुच्छेद-51 में दिए गए निर्देशों का पालन करते हुए संसद ने मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम,1993 पारित किया जिसमे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के गठन और मानवाधिकार न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान है ताकि देश के अन्दर और बाहर मानवाधिकार हनन की समस्याओं से निपटा जा सके|
- g)ग्राम पंचायतों का गठन: अनुच्छेद-40| इस प्रावधान का उद्देश्य निचले स्तर तक लोकतंत्र की स्थापना करना है|
नीति निर्देशक तत्वों से सम्बंधित सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय निम्नलिखित हैं:
- मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराइराजन मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं |
- केरल शिक्षा विधेयक में न्यायालय ने कहा कि हालाँकि,राज्य के नीति निर्देशक तत्व मूल अधिकारों पर प्रभावी नहीं हो सकते हैं ,फिर भी अधिकारों की संभावनाओं और दायरे का निर्धारण करते समय न्यायालयों को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को पूरी तरह उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि दोनों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण संबंधों को स्वीकार करना चाहिये और जहाँ तक संभव हो सके दोनों को लागू करने का प्रयास किया जाये |
- 25वें संविधान संशोधन,1971 द्वारा नीति निर्देशक तत्वों के महत्त्व में वृद्धि हुई।इसके द्वारा संविधान में अनुच्छेद 31 (ग) जोड़ा गया, जिसमे कहा गया अनुच्छेद 39(ब) और (स) को लागू करने के लिए लाये गए किसी भी कानून को इस आधार पर अमान्य नहीं ठहराया जा सकेगा कि वह अनुच्छेद 14 या 19 में दिए गए मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है।
- 42वें संविधान संशोधन ने अनुच्छेद 31(स) के दायरे को और अधिक विस्तृत कर दिया ताकि सभी नीति निर्देशक तत्वों को समाहित किया जा सके।इसने सभी नीति निर्देशकों को अनुच्छेद 14 और 19 के तहत दिए गए मूल अधिकारों पर अधिमान्यता प्रदान कर दी।
- केशवानंद भारती बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि नीति निर्देशक तत्व और मूल अधिकार एक दूसरे के पूरक हैं।यह कहा जा सकता है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में उन लक्ष्यों का वर्णन है जिन्हें प्राप्त किया जाना है और मूल अधिकार वे साधन है जिनके माध्यम से उन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
- मिनर्वामिल्स बनाम भारत संघ मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि 42 वें संविधान संशोधन द्वारा 31(ग) में किया गया संशोधन असंवैधानिक है क्योकि यह संविधान की मूल संरचना को नष्ट करता है।बहुमत से निर्णय लिया गया कि संविधान की नींव भाग 3 और भाग 4 के मध्य संतुलन पर आधारित है।अतः एक पर दूसरे को स्पष्ट महत्व प्रदान करना संवैधानिक सौहार्द्र को नष्ट करना है जोकि संविधान की मूल संरचना है।
- अबूकावूर बाई बनाम तमिलनाडु राज्य मामले में पांच सदस्यीय निर्णायक मंडल ने कहा कि हालाँकि,राज्य के नीति निर्देशक तत्व बाध्यकारी नहीं हैं फिर भी न्यायालयों को नीति निदेशक तत्वों और मूल अधिकारों के बीच समन्वय स्थापित करने का वास्तविक प्रयास करना चाहिए और दोनों के मध्य किसी भी प्रकार के संघर्ष से जहाँ तक संभव हो बचा जाये।
- उन्नाकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में न्यायालय ने पुनः दोहराया कि मूल अधिकार और नीति निर्देशक तत्व एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं और भाग 3 में दिए गए प्रावधानों की व्याख्या प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों के सन्दर्भ में की जानी चाहिए।
- संतुलित आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने और लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाने के सन्दर्भ में कुछ नीति निर्देशक तत्वों जैसे-भूमि सुधारों को बढ़ावा देना,ग्राम पंचायतों का गठन करना,कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करना, अनुसूचितजाति/जनजाति के कल्याण, अनिवार्य शिक्षा, कामगारों को निर्वाह मजदूरी, श्रमिक कानून और हिन्दू विवाह अधिनियम के कार्यान्वयन का महत्वपूर्ण स्थान है।
- अतः,राज्य के नीति निर्देशक तत्व सरकार के लिए निर्देश-पत्र के सामान हैं,जिसमे भारत में सामाजिक व कल्याणकारी राज्य की स्थापना के लिए राज्य को कुछ सकारात्मक निर्देश दिए गए हैं।
मौलिक अधिकार तथा नीति निर्देशक तत्व मे भेद
- मौलिक अधिकार राज्य की नकारात्मक भूमिका का वर्णन करते है तथा राज्य को कुछ विशेष कृत्य करने से रोकते है वही ये तत्व राज्य की सकारात्मक भूमिका दायित्व का वर्णन करते है तथा राज्य से अपेक्षा करते है कि वह जनकल्याण हेतु विशिष्ट प्रयास करें
- मौलिक अधिकार देश मे राजनैतिक जनतंत्र स्थापित करते है वही ये तत्व देश मे सामाजिक आर्थिक जनतंत्र लाते है
- मौलिक अधिकार जनता को दिये जा चुके है वही निर्देशक तत्व निर्देशात्मक है जो न्ये अधिकारों की चर्चा तो करते है पर्ंतु वास्तव मे देते कुछ नही है
- मौलिक अधिकार कड़े वैधानिक शब्दों मे वर्णित हैं, जब कि तत्व मात्र सामान्य भाषा में।
- दोनों की न्यायालय मे स्थिति पूर्णतः भिन्न है सर्वाधिक महत्वपूर्ण निर्देशक तत्व 39 ब तथा स है।
- अनु 39 ब के अनुसार राज्य के संसाधन इस प्रकार प्रयोग हो कि उनका लाभ जनसंख्या के सभी भागों को प्राप्त हों
- अनु 39 स कुछ व्यक्तियॉ के हाथों मे धन के केन्द्रीयकरण को रोकता है
- अनु 37 के अनुसार नीति निर्देशक तत्वों को न्यायालय मे प्राप्त करने लायक तो नही बताते है पर्ंतु देश के शासन मे इन्हे मौलिक रूप मे निहित मानते है यह राज्य का कर्तव्य है कि वह इन तत्वॉ को अपनी नीतियॉ तथा संसद द्वारा बनाये कानूनॉ मे स्थान दे।
नीति निदेशक तत्वों का महत्व
- संविधान सभा में भाग 4 के महत्व पे प्रश्न किया गया तथा कहा गया कि यह भाग ही व्यर्थ है क्योंकि ये तत्व कोई वैधानिकता नही रखते है। वास्तव मे ये वे परीक्षण गुब्बारे है जो कि सत्ता में विद्यमान सरकार की क्षमता का परीक्षण करते हैं। कुछ विधियों की संवैधानिकता का परीक्षण नीति निदेशक तत्वों को ध्यान मे रखकर किया जा सकेगा। इनका शैक्षणिक महत्व है।
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