छत्तीसगढ की विशेष पिछड़ी जनजातियाँ
Special Most Backward Tribes of Chhattisgarh
छत्तीसगढ की विशेष पिछड़ी जनजातियाँ
- छत्तीसगढ में विशेष पिछड़ी जनजातियों की संख्या 7 है।
- केंद्र सरकार द्वारा घोसित विशेष पिछड़ी जनजातीय 5 अबुझमाड़िया, बैगा, कमर, बिरहोर, पहाड़ी कोरवा है।
- छत्तीसगढ़ राज्य सरकार द्वारा घोसित विशेष पिछड़ी जनजातीय 2 पंडो, भुंजिया है।
- विशेष पिछड़ी जनजातियों को राष्ट्रपति का दत्तक पुत्र कहते है।
अबुझमाड़ियां जनजाति Abujhmadiya Janjati
- यह केंद्र सरकार द्वारा घोषित विशेष पिछड़ी जनजाति है।
- अबूझमाड़ियां का अर्थ अज्ञात होता है।
- अबुझमाड़िया जनजाति नारायणपुर, दंतेवाड़ा एवं बीजापुर जिले के अबुझमाड़ क्षेत्र में निवासरत हैं।
- इनकी कृषि पद्धति को पेद्दा कहते है।
- अभुझमाड़ क्षेत्र को मेटाभूम के नाम से भी जानते है।
- घोटुल में तालुरमुन्तोदेव की पूजा होती है।
- ओरछा को अबुझमाड़ का प्रवेश द्वार कहा जा सकता है।
- इस जनजाति की जनसंख्या वर्तमान में इनकी जनसंख्या बढ़कर 25 हजार से अधिक हो गई है।
- अबुझमाड़िया जनजाति ‘‘माड़ी‘‘ बोली बोलते हैं, जो द्रविड़ भाषा परिवार के गोड़ी बोली का एक रूप है।
अबुझमाड़िया जनजाति के उत्पत्ति Abujhmadiya Janjati Ki Utpatti
- अबुझमाड़िया जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में कोई ऐतिहासिक अभिलेख नहीं है।
- किवदंतियों के आधार पर माड़िया गोंड़ जाति के प्रेमी युगल सामाजिक डर से भागकर इस दुर्गम क्षेत्र में आये और विवाह कर वहीं बस गये। इन्हीं के वंशज अबुझमाड़ क्षेत्र में रहने के कारण अबुझमाड़िया कहलाये।
- सामान्य रूप से अबुझमाड़ क्षेत्र में निवास करने वाले माड़िया गोंड़ को अबुझमाड़िया कहा जाता है।
अबुझमाड़िया जनजाति के प्रमुख देवी-देवता Abujhmadiya Janjati Ka Devi Devta
- अबुझमाड़िया जनजाति के प्रमुख देवी-देवता बूढ़ादेव, ठाकुर देव (टालुभेट), बूढ़ीमाई या बूढ़ी डोकरी, लिंगोपेन, घर के देवता (छोटा पेन, बड़ा पेन, मंझला पेन) व गोत्रनुसार कुल देवता हैं।
- स्थानीय देवी-देवता में सूर्य, चंद्र, नदी, पहाड़, पृथ्वी, नाग व हिन्दू देवी-देवता की पूजा करते हैं।
- पूजा में मुर्गी, बकरा व सुअर की बलि दी जाती है।
अबुझमाड़िया जनजाति का आर्थिक जीवन
- अबुझमाड़िया जनजाति का आर्थिक जीवन पहले आदिम खेती (पेंदा कृषि), शिर जंगली उपज संग्रहण, कंदमूल एकत्रित करने पर निर्भर था। परंतु अब पेंदा कृषि का स्थान स्थाई कृषि ने ले लिया है। साथ ही विभिन्न तरह की मजदूरी का कार्य भी सीख गये हैं। घर के आस-पास की जमीन पर मक्का, कोसरा, मूंग व उड़द के अलावा मौसमी सब्जियाँ भी बोते हैं।
- कृषि मजदूरी बहुत कम करते हैं। कृषि मजदूरी के बदले में इन्हें अनाज मिलता है। जंगल से शहद, तेंदूपत्ता, कोसा, लाख, गोंद, धवई फूल, हर्रा, बहेरा इत्यादि एकत्र कर बाजार में बेचते हैं। छोटे पशु-पक्षियों का शिकार भी करते हैं। गाय, बैल, बकरी, सुअर व मुर्गी का पालन करते हैं।
अबुझमाड़िया जनजाति का प्रमुख त्यौहार
- अबुझमाड़िया जनजाति का प्रमुख त्यौहार पोला, काकसार व पंडुम आदि हैं।
- जादू-टोना और भूत-प्रेत के संबंध में अत्यधिक विश्वास करते हैं।
- तंत्र-मंत्र का जानकार गायता/सिरहा कहलाता है।
- विभिन्न त्यौहारों, उत्सवों, मड़ई और जीवन-चक्र के विभिन्न संस्कारों पर युवक-युवतियाँ ढोल, मांदर के साथ लोकनृत्य करते हैं।
- काकसार, गेड़ी नृत्य व रिलो प्रमुख नृत्य हैं।
- लोकगीत में ददरिया, रिलोगीत, पूजागीत, विवाह व सगाई के गीत तथा छठीं के गीत गाते हैं।
अबुझमाड़िया जनजाति का रहन सहन Abujhmadiya Janjati Ka Rahn Sahn
- अबुझमाड़िया जनजाति का गाँव मुख्यतः पहाड़ियों की तलहटी या घाटियों में बसा रहता है।
- पंदा कृषि (स्थानांतरित कृषि) पर पूर्णतया निर्भर रहने वाले अबुझमाड़िया लोगों का निवास अस्थाई होता था।
- पेंदा कृषि हेतु कृषि स्थान को ‘कघई‘ कहा जाता है। जब ‘कघई‘ के चारों ओर के वृक्ष व झाडियों का उपयोग हो जाता था तो वो पुनः नई ‘कघई‘ का चयन कर ग्राम बसाते थे।
- वर्तमान में शासन द्वारा पेंदा कृषि पर प्रतिबंध की वजह से स्थाई ग्राम बसने लगे हैं।
- इनके घर छोटे-छोटे झोंपड़ीनुमा लकड़ी व मिट्टी से बने होते हैं, जिनके ऊपर घासफूस की छप्पर होती है। घर दो-तीन कमरे का बना होता है। घर का निर्माण स्वयं करते हैं। घर में रोशनदानया खिड़कियाँ नहीं पाई जाती हैं। घर में बरामदा ‘‘अगहा‘‘ (बैठक), ‘‘आंगड़ी‘‘ (रसाई), ‘‘लोनू‘‘ (संग्रहण कक्ष) व बाड़ी होता है। ‘‘लोनू‘‘ में ही कुल देवता का निवास स्थान होता है।
- घरेलू सामान में सोने के लिये ‘‘अल्पांजी‘‘ बैठने के लिये ‘‘पोवई‘‘ (चटाई), अनाज कूटने की ‘‘ढेकी‘‘, ‘‘मूसल‘‘, अनाज पीसने का ‘‘जांता‘‘ भोजन बनाने व खाने-पीने के लिए मिट्टी एल्यूमिनियम, लोहे व पीतल के बर्तन, सिल व कुल्हड़, कृषि उपकरणों में हल, कुदाली, गैंती, रापा (फावड़ा), हसिया इत्यादि, शिकार के लिये तीर कमान, फरसा, टंगिया, फांदा, मछली पकड़ने लिए, मछली जाल, चोरिया, डगनी आदि का उपयोग करते हैं।
- स्त्रियाँ गोदना को स्थाई गहना मानती हैं। मस्तक, नाक के पास, हथेली के ऊपरी भाग, ठुट्ढी आदि पर गोदना सामान्य रूप से गोदवाया जाता है। गिलट या नकली चाँदी के गहने पहनते हैं। पैर में तोड़ा, पैरपट्टी, कमर में करधन, कलाईयों में चूड़ी, सुडेल (ऐंठी), गले में सुता, रूपया माला, चेन व मूंगामाला, कान में खिनवा, झुमका और बाला, नाक में फूली पहनती हैं। बालों को अनेक तरह के पिनों से सजाती हैं।
- वस्त्र विन्यास में पुरूष लंगोटी, लुंगी या पंछा पहनते हैं। सिर पर पगड़ी बांधते हैं। स्त्रियां लुगरा को कमर से घुटने तक लपेटकर पहनती हैं। इनका मुख्य भोजन चावल, मड़िया, कोदो, कुटकी, मक्का आदि का पेज और भात, उड़द, मूंग, कुलथी की दाल, जंगली कंदमूल व भाजी, मौसमी सब्जियां, मांसाहार में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी जैसे पड़की, मोर, कौआ, तोता, बकुला, खरगोश, लोमड़ी, साही, मुर्गा, बकरा का मांस खाते हैं। वर्षा ऋतु में मछली भी पकड़ते हैं। महुये की शराब व सल्फी का उपयोग जन्म से मृत्यु तक के सभी संस्कारों में अनिवार्य आवश्यकता के रूप में करते हैं।
- अबुझमाड़िया जनजाति पितृवंशीय, पितृनिवास स्थानीय व पितृसत्तात्मक जनजाति है। यह जनजाति अनेक वंश में विभक्त है। वंश अनेक गोत्रों में विभाजित है, जिन्हें ‘‘गोती‘‘ कहा जाता है। इनके प्रमुख गोत्र अक्का, मंडावी, धुर्वा, उसेंडी, मरका, गुंठा, अटमी, लखमी, बड्डे, थोंडा इत्यादि है।
- प्रसव परिवार की बुजुर्ग महिलाएं या रिश्तेदार कराती हैं। पहले प्रसव के लिये ‘‘कुरमा‘‘ झोंपड़ा (पृथक से प्रसव झोंपड़ी) बनाया जाता था। शिशु की नाल तीर या छुरी से काटी जाती है। प्रसूता को पांचद दिन तक चालव-दाल की खिचड़ी बनाकर खिलाते हैं। हल्दी, सोंठ, पीपर, तुलसी के पत्ते, गुड़, अजवाईन आदि का काढ़ा बनाकर पिलाते हैं। छठें दिन छठी मनाते हैं। प्रसूता व शिशु को नहलाकर नया कपड़ा पहनाकर घर के देवता का प्रणाम कराते हैं। इस दिन शिशु का नामकरण भी होता है। पारिवारिक व सामाजिक मित्रों कोक महुये की शराब पिलाई जाती है।
- युवकों का विवाह 18-19 वर्ष व युवतियों का विवाह 16-17 वर्ष में होता है। विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से आता है। वधू के पिता से विवाह की सहमति मिलने पर वर का पिता रिश्तेदारी पक्की कर दोनों पक्षों के बुजुर्ग आपस में बैठकर सूक (वधु धन) तय करते हैं, जो अनाज, दाल, तेल, गुड़, नगद रूपये के रूप में होता है। इस जनजाति में वधु को लेकर वधुपक्ष के लोग वर के गांव में आते हैं। विवाह की रस्म जाति के बुजुर्गों द्वारा संपन्न वर के घर पर कराई जाती है। इस जनजाति में बिथेर (सहपलायन), ओडियत्ता (घुसपैठ) और चूड़ी पहनाना (विधवा/परित्यक्ता पुर्नः विवाह) की प्रथा भी प्रचलित है।
- मृतक को दफनाते हैं। दाह-संस्कार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। विशिष्ट और संपन्न व्यक्ति की याद में श्मशान में लगभग 8 फिट ऊंचा 4 फिट गोलाई का चैकोर विभिन्न पशु-पक्षी व देवी-देवता, भूत-प्रेत व संस्कारों से नक्कासी किये गये लकड़ी के खम्भा (अनाल गढया) गढ़ाते हैं। तीसरे दिन मृत्यु भोज दिया जाता है।
- इनमें परंपरागत जाति पंचायत पाया जाता है। क्षेत्रीय आधार पर सर्वोच्च व्यक्ति मांझी (मुखिया) होता है, जिनके नीचे पटेल, पारा मुखिया व गायता होते हैं। इनका मुख्य कार्य अपने माढ़ (क्षेत्र) में शांति व्यवस्था, कानून आदि बनाये रखना, लड़ाई-झगड़ों विवादों का निपटारा करना व जाति संबंधी नियमों को बनाना व आवश्यकतानुसार संशोधन करना है।
- बैगा छत्तीसगढ़ के पांच जिलों के 10 ब्लॉकों में बैगा मौजूद हैं जिनकी आबादी 87,621 है , (ज्यादातर 301 ग्रा।प. 524 गांवों में)। कबीरधाम के बोडला (30.2%) और पंडरिया (19.5%) ब्लॉक में इनकी प्रमुखता देखी जा सकती है।
- बैगा छत्तीसगढ़ की एक विशेष पिछड़ी जनजाति है। छत्तीसगढ़ में उनकी जनसंख्या जनगणना 2011 में 89744 दशाई गई है। राज्य में बैगा जनजाति के लोग मुख्यतः कवर्धा और बिलासपुर जिले में पाये जाते हैं।
बैगा जनजाति के उत्पत्ति Baiga Janjati Ki Utpatti
- बैगा जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। रसेल, ग्रियर्सन आदि में इन्हें भूमिया, भूईया का एक अलग हुआ समूह माना जाता है।
- किवदंतियों के अनुसार ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना की तब दो व्यक्ति उत्पन्न किये। एक को ब्रह्मा जी ने ‘‘नागर‘‘ (हल) प्रदान किया। वह ‘‘नागर‘‘ लेकर खेती करने लगा तथा गोंड कहलाया। दूसरे को ब्रह्माजी ने ‘‘टंगिया‘‘ (कुल्हाड़ी) दिया। वह कुल्हाड़ी लेकर जंगल काटने चला गया, चूंकि उस समय वस्त्र नहीं था, अतः यह नंगा बैगा कहलाया। बैगा जनजाति के लोग इन्हीं को अपना पूर्वज मानते हैं।
बैगा जनजाति का रहन सहन Baiga Janjati Ka Rahan Sahan
- बैगा जनजाति के लोग पहाड़ी व जंगली क्षेत्र के दुर्गम स्थानों में गोंड, भूमिया आदि के साथ निवास करते हैं।
- बैगा जनजाति के घर मिट्टी के होते हैं, जिस पर घास फूस या खपरैल की छप्पर होती है।
- दीवाल की पुताई सफेद या पीली मिट्टी से करते हैं। घर की फर्श महिलाएं गोबर और मिट्टी से लीपती हैं।
- बैगा जनजाति के घर में अनाज रखने की मिट्टी की कोठी, धान कूटने का ‘‘मूसल‘‘, ‘‘बाहना‘‘, अनाज पीसने का ‘‘जांता‘‘, बांस की टोकरी, सूपा, रसोई में मिट्टी, एलुमिनियम, पीतल के कुछ बर्तन, ओढ़ने बिछाने के कपड़े, तीर-धनुष, टंगिया, मछली पकड़ने की कुमनी, ढुट्टी, वाद्ययंत्र में ढोल, नगाड़ा, टिसकी आदि होते हैं।
- बैगा जनजाति की महिलाएं शरीर में हाथ पैर, चेहरे पर स्थानीय ‘‘बादी‘‘ जाति की महिलाओं से गोदना गुदाती हैं।
- पुरूष लंगोटी या पंछा पहनते हैं। शरीर की ऊपरी भाग प्रायः खुला होता है।
- नवयुवक बंडी पहनते हैं। महिलाएँ सफेद लुगड़ा घुटने तक पहनती हैं। कमर में करधन, गले में रूपिया माला, चेन माला, सुतिया, काँच की मोतियों की गुरिया माला, हाथों में काँच की चूड़ियाँ, कलाई में ऐंठी, नाक में लौंग, कान में खिनवा, कर्णफूल आदि पहनती हैं। बैगा जनजाति के अधिकांश गहने गिलट या नकली चाँदी के होती हैं।
- बैगा जनजाति का मुख्य भोजन चावल, कोदो, कुटकी का भात, पेज, मक्का की रोटी या पेज, उड़द, मूँग, अरहर की दाल, मौसमी सब्जी, जंगली कंदमूल फल, मांसाहार में मुर्गा, बकरा, मछली, केकड़ा, कछुआ, जंगली पक्षी, हिरण, खरगोश, जंगली सुअर का मांस आदि हैं।
- महुए से स्वयं बनाई हुई शराब पीते हैं। पुरूष तंबाकू को तेंदू पत्ता में लपेटकर चोंगी बनाकर पीते हैं।
- मृत्यु होने पर मृतक को दफनाते हैं। तीसरे दिन घर की साफ-सफाई, लिपाई करते हैं। पुरूष दाढ़ी-मूँछ के बाल काटते हैं। 10 वें दिन दशकरम करते हैं, जिसमें मृतक की आत्मा की पूजा कर रिश्तेदारों को मृत्यु भोज कराते हैं।
- संतानोत्पत्ति भगवान की देन मानते हैं। गर्भवती महिलाएँ प्रसव के पूर्व तक सभी आर्थिक व पारिवारिक कार्य संपन्न करती हैं। प्रसव घर में ही स्थानीय ‘‘सुनमाई‘‘ (दाई) तथा परिवार के बुजुर्ग महिलाएँ कराती हैं। प्रसूता को सोंठ, पीपल, अजवाईन, गुड़ आदि का लड्डू बनाकर खिलाते हैं। छठे दिन छठी मनाते हैं व नवजात शिशु को नहलाकर कुल देवी-देवता का प्रणाम कराते हैं। घर की लिपाई पुताई करते हैं। रिश्तेदारों को शराब पिलाते हैं।
- इनमें परंपरागत जाति पंचायत पाया जाता है। इस पंचायत में मुकद्दम, दीवान, समरथ और चपरासी आदि पदाधिकारी होते हैं। पैठू, चोरी विवाह, तलाक, वैवाहिक विवाद, अनैतिक संबंध आदि का निपटारा इस पंचायत में परंपरागत तरीके से सामाजिक भोज या जुर्माना लेकर किया जाता है।
बैगा जनजाति विवाह
- विवाह उम्र लड़कों का 14-18 वर्ष तथा लड़कियों का 13-16 वर्ष माना जाता है। विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है।
- मामा बुआ के लड़के-लड़कियों के बीच आपस में विवाह हो जाता है।
- वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को ‘‘खर्ची‘‘ (वधूधन) के रूप में चावल, दाल, हल्दी, तेल, गुड़ व नगद कुछ रकम दिया जाता है।
- लमसेना (सेवा विवाह), चोरी विवाह (सह पलायन), पैठू विवाह (घूसपैठ), गुरावट (विनिमय) को समाज स्वीकृति प्राप्त है।
- पुनर्विवाह (खड़ोनी) भी प्रचलित है।
- बैगा जनजाति कई अंतः विवाही उपजातियाँ पाई जाती है। इनके प्रमुख उपजाति - बिंझवार, भारोटिया, नरोटिया (नाहर), रामभैना, कटभैना, दुधभैना, कोडवान (कुंडी), गोंडभैना, कुरका बैगा, सावत बैगा आदि है।
- उपजातियाँ विभिन्न बहिर्विवाही ‘‘गोती‘‘ (गोत्र) में विभक्त है। इनके प्रमुख गोत्र मरावी, धुर्वे, मरकाम, परतेती, तेकाम, नेताम आदि है।
- जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वृक्ष लता आदि इनके गोत्रों के टोटम होते हैं। यह जनजाति पितृवंशीय, पितृसत्तात्मक व पितृ निवास स्थानीय हैं। अर्थात् लड़कियाँ विवाह के पश्चात वधू वर के पिता के घर जाकर रहने लगती हैं।
- उनके संतान अपने पिता के वंश के कहलाते हैं।
बैगा जनजाति का आर्थिक जीवन
- बैगा जनजाति के लोग पहले जंगल काटकर उसे जला कर राख में ‘‘बेवर‘‘ खेती करते थे। वर्तमान में स्थाई खेती पहाड़ी ढलान में करते हैं। इसमें कोदो, मक्का, मड़िया, साठी धान, उड़द, मूँग, झुरगा आदि बोते हैं।
- जंगली कंदकूल संग्रह, तेंदू पत्ता, अचार, लाख, गोंद, शहद, भिलावा, तीखुर, बेचाँदी आदि एकत्र कर बेचते हैं। पहले हिरण, खरगोश, जंगली सुअर का शिकार करते थे, अब शिकार पर शासकीय प्रतिबंध है। वर्षा ऋतु में कुमनी, कांटा, जाल आदि से स्वयं उपयोग के लिए मछली पकड़ते हैं। महिलाएँ बाँस की सुपा, टोकरी भी बनाकर बेचती हैं।
बैगा जनजाति के प्रमुख देवी-देवता Baiga Janjati Ka Devi Devta
- बैगा जनजाति में प्रमुख देवी-देवता बुढ़ा देव, ठाकुर देव, नारायण देव, भीमसेन, घनशाम देव, धरती माता, ठकुराइन माई, खैरमाई, रातमाई, बाघदेव, बूढ़ीमाई, दुल्हादेव आदि हैं।
- इनके पूजा में मुर्गा, बकरा, सूअर की बलि देते हैं।
- कभी-कभी नारियल, खरेक व दारू से ही पूजा संपन्न कर लेते हैं।
- इनके प्रमुख त्यौहार हरेली, पोला, नवाखाई, दशहरा, काली चैदश, दिवाली, करमा पूजा, होली आदि हैं।
- जादू-टोना, मंत्र, तंत्र भूत-पे्रत में काफी विश्वास करते हैं। ‘‘भूमका‘‘ इनके देवी-देवता का पुजारी व भूत-प्रेत भगाने वाला होता है।
बैगा जनजाति प्रमुख नृत्य
- इनमे प्रमुख लोक नृत्यों में करम पूजा पर करमा, नाच विवाह में विलमा नाच, दशहरा में झटपट नाच नाचते हैं।
- छेरता इनका नृत्य नाटिका है।
- इनके प्रमुख लोकगीत करमा गीत, ददरिया, सुआ गीत, विवाह गीत, माता सेवा, फाग आदि है।
- इनमें प्रमुख वाद्य यंत्र मांदर, ढोल, टिमकी, नगाड़ा, किन्नरी, टिसकी आदि है।
बिरहोर जनजाति Birhor Janjati
- बिरहोर जनजाति छत्तीसगढ राज्य की आदिवासी आबादी का 1.9% है। यह पी.व्ही.टी.जी. जनजातीयों में सबसे छोटा समूह है।
- देश में इनकी अधिकांश जनसंख्या झारखंड राज्य में निवासरत है। इस जनजाति के लोग छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के धरमजयगढ़, लैलूंगा, तमनार विकासखण्ड में, जशपुर जिले के बगीचा, कांसाबेल, दुलदुला, पत्थलगांव विकासखण्डों में, कोरबा जिले के कोरबा, पोड़ी उपरोड़ा, पाली विकासखण्ड तथा बिलासपुर जिले के कोटा व मस्तूरी विकासखण्ड में निवासरत हैं।
- बिरहोर का सामान्य अर्थ बनचर /जंगल का तन /जंगल का आदमी। बिर का अर्थ जंगल एवं होर का अर्थ तन /आदमी।
- द बिरहोर पुस्तक अस. सी. रॉय ने लिखी है।
- बिरहोर जनजाति में साक्षरता 2011 की जनगणना में 39.0 प्रतिशत थी। पुरूषों में साक्षरता 49.6 प्रतिशत तथा महिलाओं में साक्षरता 28.7 प्रतिशत थी।
बिरहोर जनजाति की उत्पत्ति
- बिरहोर जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इन्हें कोलारियन समूह की जनजाति माना जाता है।
- बिरहोर जनजाति में प्रचलित किवदंती के अनुसाार सूर्य के द्वारा सात भाई जमीन पर गिराये गये थे, जो खैरागढ़ (कैमूर पहाड़ी) से इस देश में आये। चार भाई पूर्व दिशा में चले गये और तीन भाई रायगढ़ जशपुर की पहाड़ी में रह गये। एक दिन वे तीनों भाई देश के राजा से युद्ध करने निकले तथा उनमें से एक भाई के सिर का कपड़ा पेड़ में अटग गया इसे अशुभ लक्षण मानकर वह जंगल में चला गया तथा जंगल की कटीली झाड़ियों को काटने लगा। बचे दो भाई राजा से युद्ध करने चले गये और उसे युद्ध में हरा दिया। जब वे वापस आ रहे थे, तो उन्होंने अपने भाई को जंगल में ‘‘चोप‘‘ (झाड़ी) काटते देखा वे उसे बिरहोर (जंगल का आदमी या चोप काटने वाला) कहकर पुकारने लगे। वह गर्व से कहा कि हाँ भाइयों मैं बिरहोर हूँ और वह व्यक्ति जंगल में ही रहने लगा। उनकी संताने भी बिरहोर कहलाने लगी।
- मुण्डारी भाषा में ‘‘बिर‘‘ अर्थात् जंगल अथवा झाड़ी एवं ‘‘होर‘‘ का अर्थ आदमी है। बिरहोर का अर्थ जंगल का आदमी या झाड़ी काटने वाला आदमी हो सकता है।
बिरहोर जनजाति का रहन सहन Birhor Janjati Ka Rahan Sahan
- बिरहोर जनजाति के लोग पर्वतीय क्षेत्रों में गाँव में अन्य जनजातियों से कुछ दूर जंगल के किनारे झोपड़ी बनाकर रहते हैं।
- बिरहोर जनजाति का ‘‘कुड़िया‘‘ (झोपड़ी) लकड़ी और घास फूस की होती है। ‘‘कुड़िया‘‘ में एक ही कमरा होता है। किनारे में धान कूटने का मूसल, चटाई, बांस की टोकरी, टोकरा, सूपा, मिट्टी व एल्युमिनियम के कुछ बर्तन, तीर-कमार, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के जाल आदि होते हैं।
- बिरहोर जनजाति के पास ओढ़ने-बिछाने का पर्याप्त साधन नहीं रहता है।
- सामान्यतः यह जमीन पर पैरा बिछाकर सोते हैं। जाड़े के मौसम में पूरा परिवार अलाव जलाकर उसके चारों ओर सोता है।
- कुछ बिरहोर के यहाँ शहनाई, मांदर, ढोलक, ढफली, लोहारी, नगाड़ा, ढिमरी, आदि वाद्ययंत्र पाये गये हैं।
- पुरूष सामान्यतः लंगोटी या छोटा पंछा पहनते हैं। स्त्रियाँ लुगड़ा पहनती हैं। स्त्रियाँ पीतल, गिलट आदि की हाथ मेें पट्टा या ऐंठी, गले में माला, कान में खिनवा, नाक में फूली पहनती हैं। इनका मुख्य भोजन चांवल कोदो की पेज, बेलिया, कुलथी, उड़द की दाल, जंगली कंदमूल व मौसमी साग-भाजी है।
- मांसाहार में मुर्गी, बकरा, मछली, चूहा, केकड़ा, कछुआ, खरगोश, हिरण, सुअर, बंदर, जंगली पक्षियों का मांस खा लेते हैं। महुआ का शराब बनाकर पीते हैं।
- मृत्यु होने पर मृतक को दफनाते हैं। परिवार में पुरूष सदस्य दाढ़ी-मूँछ, सिर के बाल कटाते हैं, स्नान करते हैं। पहले पुरानी कुड़िया को तोड़कर नई कुड़िया बना लेते थे। एक माह बाद भी रिश्तेदारों को मृत्युभोज देते हैं।
- इस समाज में परंपरागत जाति पंचायत पाई जाती है। जाति पंचायत का प्रमुख ‘‘मालिक‘‘ कहलाता है। इस पंचायत में ढूकू विवाह, सहपलायन, विवाहिता का पहले पति को छोड़ पुनर्विवाह करने पर ‘‘सूक‘ वापस करना, अनैतिक संबंध आदि का परंपरागत तरीके से न्याय किया जाता है।
- घुमंतू जीवन व्यतीत करने वाले बिरहोर उथलू कहलाते थे, जो शिकार व कंदमूल की खोज में पहाड़ियों में जंगलों में अस्थाई निवास बना कर घूमते थे। जो स्थाई कुड़िया बनाकर गाँव के समीप निवास करते हैं जघीश बिरहोर कहलाते हैं।
बिरहोर जनजाति का आर्थिक जीवन
- बिरहोर जनजाति का मुख्य कार्य शिकार, जंगली, कंदमूल, भाजी, जंगली उपज एकत्र करनी है।
- मोहलाइन छाल की रस्सी व बाँस के टुकना, झऊंहा बनाकर भी बेचते हैं।
- घर के आस-पास की भूमि में साठी धान, मक्का, कोदो, उड़द आदि भी बो लेते हैं।
- बिरहोर जनजाति का खाद्य पदार्थ (धान-चावल) खत्म हो जाता है तो ये जंगल से नकौआ कांदा, डिटे कांदा, पिठास कांदा या लागे कांदा खोदकर लाते हैं। इसे भूनकर या उबालकर खाते हैं।
- बिरहोर जनजाति सालेहा व पोटे नामक वृक्ष की लकड़ी से ढोलक, मांदर की खोल बेहंगा आदि बनाकर बेचते हैं।
- वर्षा ऋतु में मछली भी पकड़ते हैं। पहले जंगली पशु हिरण, खरगोश लोमड़ी, सियार, बंदर तथा पक्षियों का शिकार भी करते थे।
- शिकार तथा कंदमूल संग्रहण इनकी आदिम अर्थव्यवस्था का परिचायक था।
बिरहोर जनजाति का विवाह
- बिरहोर जनजाति में विवाह उम्र सामान्यतः लड़कों के लिए 16 से 18 तथा लड़कियों के लिए 14 से 16 वर्ष माना जाता है।
- विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से आता है। विवाह तय होने पर वर के पिता कन्या के पिता को दो खंडी चावल, पाँच कुड़ो दाल, दो हड़िया शराब, लड़की के लिए एक लुगड़ा तथा उसकी माँ के लिए एक मायसारी देता है।
- विवाह की रस्म बिरहोर जाति का ढेड़हा (पुजारी) संपन्न कराता है। इसके अतिरिक्त ढूकू, उढ़रिया, गोलत (विनिमय) प्रथा को भी विवाह मान्य किया जाता है।
- विधवा तथा विवाहिता को दूसरे व्यक्ति के साथ चूड़ी पहनने (पुनर्विवाह) की अनुमति है।
- बिरहोर जनजाति में कई बहिर्विवाही गोत्र पाया जाता है। इनके प्रमुख गोत्र सोनियल, गोतिया, बंदर गोतिया, बघेल, बाड़ी, कछुआ, छतोर, सोनवानी व मुरिहार आदि है।
- संतान की प्राप्ति शुभ मानते हैं। पुत्र हो या पुत्री ईश्वर की देन मानी जाती है। गर्भावस्था में कोई विशेष संस्कार नहीं होता। गर्भवती समस्त आर्थिक व पारिवारिक कार्य करती हैं। प्रसव के वक्त प्रसूता को अलग झोपड़ी (कुड़िया) में रखते हैं। कुसेरू दाई जो इन्हीं की जाति की होती है, प्रसव कराती है। एक माह तक प्रसूता व नवजात शिशु उसी कुड़िया में रहते हैं। सातवें दिन छठी मनाते हैं, जिसमें प्रसूता व नवजात शिशु को नहलाकर प्रातः कालीन सूर्य का दर्शन व पूजन कराते हैं। रिश्तेदारों को शराब पिलाते हैं तथा भोजन कराते हैं।
बिरहोर जनजाति के प्रमुख देवी-देवता Birhor Janjati Ka Devi Devta
- बिरहोर जनजाति के प्रमुख देवता सूरज (सूर्य) है। इसके अतिरिक्त बूढ़ी माई, मरी माई, पूर्वज पहाड़, वृक्ष आदि की भी पूजा करते हैं।
- पूजा में शराब चढ़ाते हैं तथा मुर्गा, बकरा, सुअर आदि की बलि देते हैं।
- बिरहोर जनजाति के प्रमुख त्यौहार नवाखानी, दशहरा, सरहुल, करमा, सोहराई और फगुआ है।
- भूत-प्रेत, टोना, जादू, मंत्री आदि पर काफी विश्वास करते हैं। इनके मंत्र-तंत्र का जड़ी-बूटी का जानने वाला पाहन कहलाता है।
- स्थानीय अन्य जनजाति के लोग बिरहोर जाति के लोगों को टोना जादू करने में माहिर मानते हैं, इनसे डरते हैं।
बिरहोर जनजाति के प्रमुख नृत्य
- बिरहोर जनजाति के लोग करमा, फगुआ, बिहाव नाच आदि नाचते हैं।
- बिरहोर जनजाति के लोक गीतों में करमा गीत, फगुआ गीत, विवाह गीत प्रमुख हैं।
- बिरहोर जनजाति के प्रमुख वाद्य यंत्र मांदर, ढोल, ढफली, टिमकी आदि हैं।
कमार जनजाति Kamar Janjati
- कमार जनजाति को भारत सरकार द्वारा ‘‘विशेष पिछड़ी जनजाति‘‘ का दर्जा दिया गया है।
- कमार जनजाति गरियाबंद जिले की गरियाबंद, छूरा, मैनपुर तथा धमतरी जिले के नगरी तथा मगरलोड विकासखण्ड में मुख्यतः निवासरत हैं। महासमुंद जिले के महासमुंद एवं बागबाहरा विकासखण्ड में भी इनके कुछ परिवार निवासरत हैं।
- कमार जनजाति 2011 की जनगणना अनुसार राज्य में इनकी जनसंख्या 26530 दर्शित है।
- 2011 की जनगणना अनुसार कमार जनजाति में साक्षरता 47.7 प्रतिशत दर्शित है। पुरूषों में साक्षरता 58.8 प्रतिशत तथा स्त्रियों में 37.0 प्रतिशत है।
- कमार जनजाति के दो उपवर्ग है - 1.बुधरजिया 2.मकाडिया। बुधरजिया बन्दर मास नही खाते है। मकाडिया बन्दर मास खाते है।
- पंचायत प्रधान को कुरहा कहते है। कमार जनजाति में घोडा छूना निषेध माना जाता है।
कमार जनजाति की उत्पत्ति
- कमार जनजाति अपनी उत्पत्ति मैनपुर विकासखण्ड के देवडोंगर ग्राम से बताते हैं।
- कमार जनजाति का सबसे बड़ा देवता ‘‘वामन देव‘‘ आज भी देवडोंगर की ‘‘वामन डोंगरी‘‘ में स्थापित है।
कमार जनजाति का रहन सहन Kamar Janjati Ka Rahan Sahan
- कमार जनजाति के लोगों के मकान घास फूस या मिट्टी के बने होते हैं। मकान में प्रवेश हेतु एक दरवाजा होता है, जिसमें लकड़ी या बाँस का किवाड़ होता है। छप्पर घास फूस या खपरैल की होती है। दीवारों पर सफेद मिट्टी की पुताई करते हैं। फर्श मिट्टी का होता है, जिसे स्त्रियाँ गोबर से लीपती हैं।
- घरेलू वस्तुओं में मुख्यतः चक्की, अनाज रखने की कोठी, बांस की टोकनी, सूपा, चटाई, मिट्टी के बर्तन, खाट, मूसल बांस बर्तन बनाने के औजार, ओढ़ने बिछाने तथा पहनने के कपड़े, खेती के औजार जैसे - गैती, फावड़ा, हंसिया, कुल्हाड़ी आदि। इस जनजाति के लोग शिकार करते थे, तीर-धनुष तथा मछली पकड़ने का जाल प्रायः घरों में पाया जाता है।
- कमार लड़कियाँ 8-10 वर्ष की उम्र में स्थानीय देवार महिलाओं से हाथ, पैर, ठोढ़ी आदि से गुदना गुदवाती हैं।
- नकली चाँदी, गिलट आदि के आभूषण पहनती हैं। आभूषणों में हाथ की कलाई में ऐंठी, नाक में फुली, कान में खिनवा, गले में रूपियामाला आदि पहनती हैं। वस्त्र विन्यास में पुरूष पंछा (छोटी धोती), बण्डी, सलूका एवं स्त्रियाँ लुगड़ा, पोलका पहनती हैं।
- कमार जनजाति का मुख्य भोजन चावल या कोदो की पेज, भात, बासी के साथ कुलथी, बेलिया, मूँग, उड़द, तुवर की दाल तथा मौसमी सब्जियाँ, जंगली साग भाजी आदि होता है। मांसाहार में सुअर, हिरण, खरगोश, मुर्गा, विभिन्न प्रकार के पक्षियों का मांस तथा मछली खाते हैं। पुरूष महुवा से शराब बनाकर पीते हैं। पुरूष धूम्रपान के रूप में बीड़ी व चोंगी पीते हैं।
- कमार जनजाति में क्रमशः पहाड़पत्तिया और बुंदरजीवा दो उपजातियाँ पाई जाती हैं। पहाड़पत्तिया कमार लोग पहाड़ में रहने वाले तथा बुंदरजीवा कमार मैदानी क्षेत्र में रहने वाले कहलाते हैं। इस उपजातियों में गोत्र पाये जाते हैं - जगत, तेकाम, मरकाम, सोढ़ी, मराई, छेदइहा और कुंजाम इनके प्रमुख गोत्र है। एक गोत्र के लोग अपने आपको एक पूर्वज की संतान मानते हैं।
- मृत्योपरांत मृतक के शरीर को दफनाते हैं। तीसरे दिन तीजनहावन होता है, जिसमें परिवार के पुरूष सदस्य दाढ़ी मूँछ व सिर के बालों का मुंडन कराते हैं। घर की सफाई स्वच्छता कर सभी स्थान पर हल्दी पानी छिड़करे अपने शरीर के कुछ भागों में भी लगाते हैं। यदि किसी कारणवश मृत्युभोज नहीं दे पाये तो 1 वर्ष के अंदर आर्थिक अनुकूलता अनुसार भोज दिया जाता है।
- कमार जनजाति में भी सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक परंपरागत जाति पंचायत (सामाजिक पंचायत) होती है। कमार जनजाति के सभी व्यक्ति उस पंचायत का सदस्य होता है। इस पंचायत के प्रमुख ‘‘मुखिया‘‘ कहलाता है। सामान्य जातिगत विवादों का निपटारा गांव में ही कर लिया जाता है। अनेक ग्रामों को मिलाकर एक क्षेत्रीय स्तर की जाति पंचायत पाई जाती है। जब कोई त्यौहार, मेला या सामूहिक पर्व मनाया जाता है, उस समय इस पंचायत की बैठक आयोजित की जाती है। इस पंचायत में वैवाहिक विवाद, अन्य जाति के साथ वैवाहिक या अनैतिक संबंध आदि विवादों का निपटारा किया जाता है।
कमार जनजाति का आर्थिक जीवन
- कमार जनजाति का मुख्य व्यवसाय बांस से सूपा, टूकना, झांपी आदि बनाकर बेचना, पक्षियों तथा छोटे अन्य जन्तुओं का शिकार, मछली पकड़ना, कंदमूल तथा जंगली उपज संग्रह और आदिम कृषि है।
- कमार जनजाति का मुख्य कृषि उपज कोदो, धान, उड़द, मूँग, बेलिया, कुलथी आदि है।
- कमार जनजाति काआर्थिक जीवन का दूसरा पहलू वनोपज संग्रह है, जिसमें महुवा, तेन्दू, सालबीज, बांस, चिरौंजी, गोंद, आँवला आदि संग्रह करते हैं। इसे बेचकर अन्य आवश्यक वस्तुएँ जैसे - अनाज, कपड़े इत्यादि खरीदते हैं।
- कुछ कमार लोग जंगल से शहद एवं जड़ी बुटी भी एकत्रित कर बेचते भी हैं।
कमार जनजाति का विवाह
- विवाह रस्म कमार जनजाति में बड़े बूढ़ों की देख-रेख में संपन्न होती है।
- सामान्य विवाह के अतिरिक्त गुरांवट व घर जमाई प्रथा भी प्रचलित है।
- पैठू (घुसपैठ), उढ़रिया (सहपलायन) को परंपरागत सामाजिक पंचायत में समाजिक दंड के बाद समाज स्वीकृति मिल जाती है।
- विधवा, त्यक्ता, पुनर्विवाह (चूड़ी पहनाना) को मान्यता है। विधवा भाभी देवर के लिए चूड़ी पहन सकती हैं।
- एक ही गोत्र के लड़के-लड़कियों में विवाह निषेध माना जाता है।
- ये पितृवंशीय, पितृ सत्तात्मक एवं पितृ निवास स्थानीय होते हैं, किन्तु विवाह के कुछ समय बाद लड़का पिता की झोपड़ी के पास नई झोपड़ी बनाकर रहने लगता है।
कमार जनजाति के प्रमुख देवी-देवता Kamar Janjati Ka Devi Devta
- कमार जनजाति के प्रमुख देवी कचना, धुरवा, बूढ़ादेव, ठाकुर देव, वामन देव, दूल्हा देव, बड़ी माता, मंझली माता, छोटी माता, बू़ढ़ी माई, धरती माता आदि है।
- पोगरी देवता (कुलदेव), मांगरमाटी (पूर्वजों के गाँव व घर की मिट्टी), गाता डूमा (पूर्वज) की भी पूजा करते हैं। पूजा में मुर्गी, बकरा आदि की बलि भी चढ़ाते हैं।
कमार जनजाति के प्रमुख त्यौहार
- कमार जनजाति के प्रमुख त्यौहार हरेली, पोरा, नवाखाई, दशहरा, दिवाली, छेरछेरा, होली आती हैं।
- त्यौहार के समय मुर्गी, बकरा आदि का मांस खाते एवं शराब पीते हैं।
- भूत-प्रेत, जादू-टोना पर भी विश्वास करते हैं। तंत्र-मंत्र का जानकार बैगा कहलाता है।
- कमार जनजाति की महिलाएँ दिवाली में सुवा नाचती हैं। विवाह में पुरूष व महिलाएँ दोनों नाचते हैं। पुरूष होली व दिवाली के समय खूब नाचते हैं।
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पहाड़ी कोरवा जनजाति Pahadi Korwa Janjati
- पहाड़ी कोरवा जनजाति केंद्र सरकार द्वारा घोषित विशेष पिछड़ी जनजाति है
- छत्तीसगढ़ में पहाड़ी कोरवा विशेष पिछड़ी जनजाति जशपुर, सरगुजा, बलरामपुर, तथा कोरबा जिले में निवासरत है।
- पहाड़ी कोरवा जनजाति के दो उपवर्ग है - 1.पहाड़ी कोरवा 2.दिहाड़ी कोरवा।
- पहाड़ी कोरवा जनजाति के लोग पेड़ों के ऊपर मचान बनाकर रहते है।
- पहाड़ी कोरवा जनजाति में मृत संस्कार को नवाधानी कहते है क्रियाकर्म के समय कुमारीभात की परम्परा है।
- पहाड़ी कोरवा जनजाति में विवाह के अवसर पर दमनच नृत्य किया जाता है , दमनच नृत्य भयोत्पादक नृत्य है।
- पहाड़ी कोरवा जनजाति में ढूकू विवाह प्रचलित है।
- ये लोग पंचायत को मयारी कहते है।
- शरीर में आग से निशान बनाया जाता है जिसे दरहा कहते है।
- कोरवा जनजाति का मुख्य पेय पदार्थ हडिया है।
- कोरवा जनजाति सिंगरी त्यौहार प्रति 5 साल में एक बार मनाते है।
- सर्वेक्षण वर्ष 2005-06 के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या 34122 थी। वर्तमान में इनकी जनसंख्या बढ़कर लगभग 40 हजार से अधिक हो गई है।
- वर्ष 2005-06 में कराये गये सर्वेक्षण में पहाड़ी कोरवा जनजाति में साक्षरता 22.02 प्रतिशत पाई गई थी। वर्तमान में बढ़कर पहले से अधिक हो चुकी है।
पहाड़ी कोरवा जनजाति की उत्पत्ति
- पहाड़ी कोरवा जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। कालोनिल डाॅल्टन ने इन्हें कोलारियन समूह से निकली जाति माना है।
- किवदंतियों के आधार पर अपनी उत्पत्ति राम-सीता से मानते हैं। वनवास काल में राम-सीता व लक्ष्मण धान के एक खेत के पास से गुजर रहे थे। पशु-पक्षियों से फसल की सुरक्षा हेतु एक मानवाकार पुतले को धनुष-बाण पकड़ाकर खेत के मेढ़ में खड़ा कर दिया था। सीता जी के मन में कौतुहल करने की सूझी। उन्होंने राम से उस पुतले को जीवन प्रदान करने को कहा। राम ने पुतले को मनुष्य बना दिया यही पुतला कोरवा जनजाति का पूर्वज था।
- एक अन्य मान्यता के अनुसार शंकर जी ने सृष्टि का निर्माण किया। तत्पश्चात् उन्होंने सृष्टि में मनुष्य उत्पन्न करने का विचार लेकर रेतनपुर राज्य के काला और बाला पर्व से मिट्टी लेकर दो मनुष्य बनाये। काला पर्वत की मिट्टी से बने मानव का नाम कइला तथा बाला पर्वत की मिट्टी से बने हुये मानव का नाम घुमा हुआ। तत्पश्चात् शंकर जी ने दो नारी मूर्ति का निर्माण किया जिनका नाम सिद्धि तथा बुद्धि था। कइला ने सिद्धि के साथ विवाह किया, जिनसे तीन संतानें हुईं पहले पुत्र का नाम कोल, दूसरे पुत्र का नाम कोरवा तथा तीसरे पुत्र का नाम कोडाकू हुआ। कोरवा के भी दो पुत्र हुये। एक पुत्र पहाड़ में जाकर जंगलों को काटकर दहिया खेती करेन लगा, पहाड़ी कोरवा कहलाया। दूसरा पुत्र जंगल को साफ कर हल के द्वारा स्थाई कृषि करने लगा, डिहारी कोरवा कहलाया।
पहाड़ी कोरवा जनजाति का रहन सहन Pahadi Korwa Janjati Ka Rahan Sahan
- पहाड़ी कोरवा जनजाति मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती है। घर की दीवाल लकड़ी व बाँस से बनाते थे, जिस पर घास-फूंस का छप्पर होता था।
- वर्तमान में घर मिट्टी का बनाते हैं, जिस पर छप्पर देशी खपरैल का होता है। घर का फर्श मिट्टी का बना होता है, जिसे 8-10 दिन में एक बार मिट्टी या गोबर से लीपते हैं।
- घर प्रायः एक कमरे या दो कमरे का होता है। घरेलू वस्तुओं में भोजन बनाने का कुछ बर्तन, तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, कुछ बाँस के टोकरे आदि होते हैं। पुरूष व महिलाएँ सप्ताह में एक या दो बार स्नान करते हैं।
- महिलाएँ एवं पुरूष सिर के बालों को लंबे रखते हैं। बालों को पीछे की ओर बाँध लेते हैं। स्त्रियाँ बालों में गुल्ली या मूँगफली का तेल लगाकर अब कंघी करने लगी हैं। स्त्रियाँ गिलट के गहने जैसे - हाथ में कड़े ऐंठी, नाक, कान में लकड़ी या गिलट के आभूषण पहनती हैं। पुरूष सामान्यतः कमर के नीचे लंगोटी लगाता है या पंछा पहनता है, शरीर का ऊपरी भाग खुला रहता है। कुछ लोग अब बंडी पहनने लगे हैं। स्त्रियाँ सिफ। लुगरा पहनती हैं।
- पहाड़ी कोरवा जनजाति का प्रमुख भोजन कोदो, कुटकी, गोदली की पेज, कभी-कभी चावल की भात व जंगली कंदमूल, भाजी व मौसमी सब्जी है। मांसाहार में मुर्गी, सभी प्रकार के पक्षी, मछली, केकड़ा, बकरा, हिरण, सुअर आदि का मांस खाते हैं। महुआ से शराब बनाकर पीते हैं। पुरूष चोंगी पीते हैं।
- इस जनजाति की गर्भवती महिलाएँ प्रसव के दिन तक सभी आर्थिक तथा पारिवारिक कार्य करती हैं। प्रसव के लिये पत्तों से निर्मित अलग झोंपड़ी बनाते हैं, जिसे ‘‘कुम्बा‘‘ कहते हैं। प्रसव इसी झोपड़ी में स्थानीय दाई जिसे ‘‘डोंगिन ‘‘ कहते हैं की सहायता से कराते हैं। बच्चे का नाल तीर के नोक या चाकू से काटते हैं। नाल झोपड़ी में ही गड़ाते हैं। प्रसूता को हल्दी मिला भात खिलाते हैं। कुलथी, एंठीमुड़ी, छिंद की जड़, सरई छाल, सोठ-गुड़ से निर्मित काढ़ा भी पिलाते हैं। छठें दिन छठी मनाते हैं, बच्चे तथा माता को नहलाकर सूरज, धरती व कुल देवी को प्रणाम कराते हैं। महुआ से निर्मित शराब मित्रों को पिलाते हैं।
- मृत्यु होने पर मृतक को दफनाते हैं। 10 वें दिन स्नान कर देवी-देवता एवं पूर्वजों की पूजा करते हैं। मृत्यु भोज देते हैं। जिस झोंपड़ीं में मृत्यु हुई थी, उसे नष्ट कर नई झोंपड़ी बनाकर रहते हैं।
- इनमें अपनी परम्परागत जाति पंचायत पाई जाती है। जाति पंचायत का प्रमुख मुखिया कहलाता है। इस पंचायत में पटेल, प्रधान और भाट आदि पदाधिकारी होते हैं। कई ग्राम मिलकर गठित जाति पंचायत का मुखिया टोलादार कहलाता है। इस पंचायत में वधुमूल्य, विवाह, तलाक, अन्य जाति के साथ विवाह या अनैतिक संबंध आदि मामले निपटाये जाते हैं। जाति के देवी-देवता की पूजा व्यवस्था भी जाति पंचायत द्वारा कराई जाती है।
पहाड़ी कोरवा जनजाति का आर्थिक जीवन
- पहाड़ी कोरवा जनजाति का आर्थिक जीवन मुख्यतः जंगली ऊपज संकलन शिकार पर आधारित था।
- वर्तमान में स्थाई बस कर कोदो-कुटकी, गोदली, धान, मक्का, उड़द, मूँग, कुलथी आदि की खेती करने लगे हैं। असिंचित व पथरीली जमीन होने के कारण उत्पादन बहुत कम होता है, जिनके पास कम कृषि भूमि है, वे अन्य जनजातियों के खेतों में मजदूरी करने जाने लगे हैं।
- जंगली उपज में मुख्यतः कंदमूल, भाजी, महुआ, चार, गोंद, तेंदूपत्ता, शहद, आँवला आदि एकत्र करते हैं। गोंद, तेंदूपत्ता, चार, शहद, आँवला को स्थानीय बाजारों में बेचते हैं।
- पुरूष-बच्चे पक्षियों का शिकार तीर-धनुष से करते हैं। पुरूष व महिलाएँ मछली, केकड़ा, घोंघा भी वर्षा ऋतु व अन्य ऋतु में छोटे नदी नाले से पकड़ते हैं। इसे स्वयं खाते हैं।
कोरवा जनजाति मुख्यतः दो उपसमूहों में बंटी हुई है
- एक समूह जो शिकार वनोपज संग्रह तथा दहिया खेती करते थे। शिकार तथा वनोपज की खोज में एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ घुमंतू जीवन व्यतीत करते थे, उन्हें पहाड़ी कोरवा कहा जाता है।
- दूसरा समूह जो पहाड़ी कोरवा की अपेक्षा कुछ विकसित होकर स्थाई कृषि करने लगे तथा ग्रामों में स्थाई घर बनाकर रहने लगे। ‘‘डिह‘‘ (गाँव) में स्थाई रूप से रहने के कारण इन्हें डिहारी कोरवा कहा जाता है।
- पहाड़ी कोरवा जनजाति में मुड़िहार, हसदा, ऐदमे, फरमा, समाउरहला, गोनु, बंडा, इदिनवार, सोनवानी, भुदिवार, बिरबानी आदि गोत्र पाये जाते हैं।
कोरवा जनजाति विवाह
- विवाह उम्र लड़कों में 16-20 वर्ष और लड़ियों में 15-18 वर्ष पाई जाती है।
- विवाह का प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है। विवाह में अनाज, दाल, तेल, गुड़ कुछ रूपये वधू के पिता को ‘‘सुक‘‘ के रूप में दिया जाता है।
- विवाह मंगनी, सूक बधौंनी, विवाह और गौना, इस प्रकार चार चरण में पूरा होता है। विवाह के 2-3 वर्ष बाद गौना होता है। फेरा करने का कार्य जाति का मुखिया संपन्न कराता है।
- कोरवा जनजाति में ‘‘गुरावट‘‘ (विनिमय), ‘‘लमसेना‘‘ (सेवा विवाह), ‘‘पैठू‘‘ (घुसपैठ), ‘‘उढ़रिया‘‘ (सहपलायन) आदि भी पाया जाता है।
- विधवा पुनर्विवाह, देवर-भाभी का पुनर्विवाह भी मान्य है।
कोरवा जनजाति प्रमुख देवी-देवता
- कोरवा जनजाति के प्रमुख देवी-देवता ठाकुरदेव, खुरियारानी, शीतलामाता, दुल्हादेव आदि हैं।
- कोरवा जनजाति के अतिरिक्त नाग, बाघ, वृक्ष, पहाड़, सूरज, चांद, धरती, नदी आदि को भी देवता मानकर पूजा करते हैं।
- पूजा के अवसर पर मुर्गे की बलि देते हैं व शराब चढ़ाते हैं। कोरवा जनजाति के प्रमुख त्यौहार दशहरा, नवाखानी, दिवाली, होली आदि है।
- भूत-पे्रत, जादू-टोना में भी विश्वास करते हैं। इनमें मंत्र जादू के जानकार व्यक्ति देवार बैगा कहलाता है।
कोरवा जनजाति नृत्य
- कोरवा जनजाति के लोग करमा, बिहाव, परघनी, रहस आदि नाचते हैं। लोकगीतों में करमा गीत, बिहाव गीत, फाग आदि प्रमुख हैं। इसकी अपनी विशिष्ट बोली है, जिसे ‘‘कोरवा बोली‘‘ कहते हैं।
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पंडो जनजाति Pando Janjati
- पंडो जनजाति राज्य सरकार द्वारा घोषित एक विशेष पिछड़ी जनजाति है।
- पंडो जनजाति अंबिकापुर क्षेत्र में निवास करते है।
- पंडो जनजाति के लिए राज्य सरकार द्वारा पंडो विकास अभिकरण अंबिकापुर में संचालित है।
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भुंजिया जनजाति Bhunjiya Janjati
- भुंजिया जनजाति राज्य सरकार द्वारा घोषित एक विशेष पिछड़ी जनजाति है।
- भुंजिया जनजाति का संकेन्द्रण प्रमुख रूप से राज्य के गरियाबंद, धमतरी एवं महासमुंद जिले मे है।
- जनगणना 2011 अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य मे भुंजिया जनजाति की जनसंख्या 10603 है। इनमें स्त्री-पुरूष लिंगानुपात 1029 है।
- भुंजिया जनजाति की साक्षरता दर 50.93 प्रतिशत है जिसमे पुरूष साक्षरता 64.19 एवं स्त्री साक्षरता 38.04 प्रतिशत है।
- भुंजिया जनजाति रोग का इलाज तपते लोहे से दाग कर किया जाता है।
- भुंजिया जनजाति के लोग रसोई घर को लाल बंगला कहते है।
भुंजिया जनजाति की उत्पत्ति
- भुंजिया जनजाति की चैखुटिया भुंजिया एवं चिंदा भुंजिया दो उपजातियां है।
- मान्यता अनुसार चैखुटिया भुंजिया जनजाति की उत्पत्ति हल्बा पुरूष एवं गोंड महिला के विवाह से माना जाता है वही रिज़ले ने चिंदा भुंजिया की उत्पत्ति बिंझवार एवं गोंड जनजाति से मानी है।
- अन्य अवधारणा अनुसार आग मे जलने के कारण इन्हें भुंजिया कहा जाने लगा।
भुंजिया जनजाति का रहन सहन Bhunjiya Janjati Ka Rahan Sahan
- भुंजिया जनजाति ग्रामों मे क्षेत्र की गोंड, कमार आदि समुदायों के साथ निवासरत है। इनके घर सामान्यतः 02-03 कमरों के होते है। घर प्रायः मिट्टी के बने होते है। फर्श की लिपाई गोबर मिट्टी से प्रतिदिन की जाती है।
- भुंजिया जनजाति अपने आवास की साफ-सफाई एवं स्वच्छता का विशेष ध्यान रखते है। चैखुटिया भुंजिया लोग अपने घरों में पृथक से रांधा घर बनाते है जिसकी छत प्रायः घास-फूंस की होती है व दिवारे क्षेत्र मे पायी जाने वाली विशिष्ट प्रकार की लाल मिट्टी से पुताई की हुई होती है। जो पृथक से दिखाई पड़ती है। इनमे रांधा घर को ’’लाल बंगला’’ कहा जाता है। लाल बंगला के संबंध में माना जाता है कि यहां इनका देव स्थान होता है। इस रांधा घर को गोत्रज सदस्य के अतिरिक्त अन्य कोई स्पर्श नही कर सकते है।
- भुंजिया लोगों के घरों में सीमित किन्तु आवश्यक दैनिक उपयोगी वस्तुएं, कृषि, शिकार, अर्थोपार्जन उपयोगी वस्तुएं, परिधान, कृषि, साज-श्रृंगार की वस्तुएं पायी जाती है। अनाज रखने की कोठी, अनाज पिसने जांता, ढेंकी, मूसल, भोजन पकाने एवं खाने के मिट्टी, एल्युमिनियम, कांसे के बर्तन, कृषि उपकरणों मे कुल्हाड़ी, बांस की टोकरी, सुपा, नांगर, मछली पकड़ने बांस निर्मित झापी, चोरिया व जाल होते है।
- भुंजिया महिलाएं हाथ, पैर, चेहने आदि पर गोदना गुदवाती है। पैरों में सांटी, हाथ मे पटा, ऐंठी, चुड़िया, गले मे रूपया माला, नाक में फुली, कान मे खिनवा आदि आभूषण गिलट व नकली चांदी से निर्मित हाट बाजार से क्रय कर पहनती है।
- भुंजिया जनजाति पितृवंशीय, पितृसत्तात्मक एवं पितृ स्थानीय व्यवस्था वाला समाज है।
- भुंजिया जनजाति में नेताम, मरई, पाती, सेठ, दीवान, नाईक, सरमत, सुआर, आदि गोत्र पाये जाते है। इनके गोत्र टोटेमिक एवं बर्हिविवाही होते है।
- भुंजिया जनजाति में गर्भावस्था में कोई विशिष्ट संस्कार नही किये जाते। प्रसव सामान्यतः घर पर हीे स्थानीय दाई या परिवार की बुजुर्ग महिला की देख-रेख में किया जाता है। प्रसव पश्चात प्रसुता को जड़ीबुटियों से निर्मित कसा पानी दिया जाता है। छठे दिन छठी संस्कार व शुद्धिकरण का कार्य किया जाता है जिसमें उनपर दूध छिड़कर उन्हें पवित्र किया जाता है तथा संबंधियों को भोज कराया जाता है।
- भुंजिया जनजाति मे मृत्यु होने पर मृतक को दफनाएं जाने की प्रथा है। तीसरे दिन घर की लिपाई पुताई कर स्नान किया जाता है। जिसे तीज नहावन कहा जाता है। समगोत्रीय पुरूष दाढ़ी मुंछ एवं सिर के बाल का मुण्डन कराते है। व दसवें दिन मृत्यु भोज दिया जाता है। यह समुदाय आत्मावादी है।
- भुंजिया जनजाति में परम्परागत भुंजिया जाति पंचायत पायी जाती है। इनमें पुजेरी, पाती, दीवान, के प्रमुख पद होते है जो वंशानुगत होते है। जिसमें समाजिक लड़ाई झगड़े, अनैतिक संबंध, अन्र्तजातीय विवाह, आदि के मामले सुलझाये जाते है। दण्ड के रूप में नगद एवं सामाजिक बहिष्कार जैसे प्रावधान होते है।
भुंजिया जनजाति की आर्थिक स्थिति
- भुंजिया लोग कृषि कार्य मे धान, जोधरा, कोदो, उड़द तिल आदि का उत्पादन करते है। महुआ चार, गोंद, तेंदु आदि का संकलन करते है उपलब्धता अनुसार मछलियों का शिकार भी करते है।
- भुंजिया जनजाति का मुख्य भोजन चांवल, कोदो, हड़िया एवं मौसमी सब्जिया है। उड़द, कुल्थी, बेलिया आदि दालों का उत्पादन किया जाता है। विशिष्ट अवसरों पर बकरा, मछली, मुर्गा व अन्य जन्तुओं का उपभोग करते है तथा महुआ से निर्मित मद का भी सेवन करते है।
भुंजिया जनजाति में विवाह संस्कार
- भुंजिया जनजाति में बालिकाओ के रजोदर्शन के पूर्व कांड विवाह का संस्कार अनिवार्य है जिसमें बालिका का विवाह तीर या बाड़ के साथ कराया जाता है।
- भुंजिया जनजाति में विवाह हेतु विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है। वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को सूक के रूप में चांवल, दाल, गुड़ आदि दिया जाता है। विवाह संबंधी रस्म जाति के सरमत गोत्र के बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा सम्पन्न कराई जाती है।
- इनमें ओढरिया, पैठू, लमसेना, चूड़ी विवाह आदि समाज द्वारा अधिमान्य विवाह है।
- भुंजिया जनजाति में बिहाव नृत्य, पड़की, रहस, राम सप्ताह आदि लोकगीत एवं लोकनृत्य प्रचलित है।
भुंजिया जनजाति के प्रमुख देवी-देवता
- भुंजिया जनजाति के प्रमुख देवी-देवताओ में बुढ़ादेव, ठाकुरदेव, भैसासुर, बुढ़ीमाई, काना भैरा, कालाकुंवर, डुमादेव, आदि प्रमुख है।
- भुंजिया जनजाति के प्रमुख त्यौहार नवाखाई, हरेली, पोला ,दशेरा, दिवाली, है।
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