छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश
Kalchuri Dynasty in Chhattisgarh
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश Kalchuri Dynasty in Chhattisgarh
भारत में कलचुरी नरेशों ने 550 से 1750 तक राज्य किया। उत्तर तथा दक्षिण के प्रदेशों में आपना राज्य स्थापित किया। इस वंश की स्थापना वामनराजदेव ने किया था। इस वंश के आदि पुरुष के रूप में कृष्ण राजदेव को माना जाता है। ये पूर्णतः त्रिपुरी के निवासी थे। इन्हे कल्चुरी के आलावा इन्हे प्राचीन समय में अलग -अलग नमो से जाना गया। कटच्चुरी,कालत्सुरी ,सहस्त्रार्जुन ,हैहयवंशी ,चेदीयनरेश आदि मानों से जाने जाते थे।
कल्चुरी राजवंश प्राचीनतम राजवंशों में से एक है इनका प्राचीन स्थान महिष्मति और बाद में त्रिपुरी वर्तमान में तेवर है । इसी त्रिपुरी राजवंश के एक लहुरी शाखा ने कालांतर में छत्तीसगढ़ में राज्य स्थापित किया था।
कलचुरी वंश छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्ण काल कहते हैं। इस वंश के राजाओ ने छत्तीसगढ़ के रजनीतिक , सामाजिक और संस्कृति को पोषित और उन्नत किया है।
कलचुरियों के छत्तीसगढ़ में लगभग नौ सदियों तक राज किया। कलचुरियों (हैहय) वंश के राजपूतो ने भारत के अलग-अलग स्थानों पर शासन किया। कलचुरियों के कई शाखाये थी जिसमे छत्तीसगढ़ में रतनपुर और रायपुर की शाखाएं स्थापित हुई।
1. कलिंगराज़ (संस्थापक) - 1000-1020 ई.
- छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश महत्वपूर्ण जानकारी -
- नारायण मंदिर का निर्माण - देवपाल नाम के मोची ने कराया था।
- नगर स्थापना - रायपुर नगर की स्थापना रामचंद्र देव ने अपने बेटे हरी ब्रम्हदेव राय के नाम पर किया।
- राजधानी परिवर्तन - हरी ब्रम्ह देव ने खल्लारी से रायपुर स्थापित किया था।
- कलचुरियों की जानकारी तवारीख ए हैहय वंशीय राजा की पुस्तक से पुस्तक के लेखक -बाबू रेवाराम थे।
- कलचरी वंश की कुल देवी - गज लक्ष्मी।
- कलचुरी उपासक थे - शिव (शैव )।
- कलचुरियों के सिक्के पर -अंकित होता था - लक्ष्मी का।
- कलचुरियों के ताम्रपत्र की शुरुवात - ॐ नमः शिवाय से।
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश Kalchuri Dynasty in Chhattisgarh
नवमी सदी के अंत में कलचुरियों ने छत्तीसगढ़ में अपनी शाखा स्थापित करने का प्रयास किया। इसी क्रम में कोक्क्ल प्रथम ने अपने पुत्र शंकरगण (मुगधतुंग ) ने कोशल नरेश बाणवंशी विक्रमदित्य को पराजित कर पालि प्रदेश पर कब्ज़ा कर लिया। पाली प्रदेश में अपना शासन प्रारंभ कर तुम्माण को अपनी प्रथम राजधानी बनाया।
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का शासन काल को दो भागों में बाटा गया है जिसमे पहला रतनपुर शाखा ,और दूसरा रायपुर शाखा है।
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का रतनपुर शाखा Chhattisgarh me Kalchuri Vansh Ke Ratnpur Shakha
1. कलिंगराज़ (संस्थापक) - 1000-1020 ई.
2. कमलराज - 1020-1045 ई.
3. रत्नदेव - 1045-1065 ई.
4. पृथ्वीदेव प्रथम - 1065-1095 ई.
5. जाजल्लदेव प्रथम - 1095-1120 ई.
6. रत्नदेव द्वितीय - 1120-1135 ई.
7. पृथ्वीदेव द्वितीय - 1135-1165 ई.
8. जाजल्लदेव द्वितीय - 1165-1168 ई.
9. जगतदेव - 1168-1178 ई.
10. रत्नदेव तृतीय - 1178-1198 ई.
11. प्रतापमल्ल - 1198-1222 ई.
12. बाहरेन्द्र साय - 1480-1544 ई.
13. कल्याण साय - 1544-1581 ई.
14. तखत सिंह - 1685-1689 ई.
15. राज सिंह - 1689-1712 ई.
16. सरदार सिंह - 1712-1732 ई.
17. रघुनाथ सिंह - 1732-1745 ई.
18. मोहनसिंह - 1745-1757 ई.
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का शासन काल Kalchuri dynasty rule in Chhattisgarh
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की स्थापना कलिंगराज ने 1000 ई में किया था। रतनपुर की प्रसिद्दी चारो युगो में था। सतयुग में इसका नाम मणिपुर ,त्रेता में इसका नाम माणिकपुर ,द्वापर में हिरकपुर और कलयुग में रत्नपुर के नाम से प्रसिद्द है रतनपुर में कलचुर राजवंशों की लहुरी शाखा ने 10 वीं शताब्दी में राज्य स्थापित किया। शासनकाल 1000से 1741 तक था।
रतनपुर कलचुरी वंश के प्रमुख शासक Ratanpur Kalchuri Vansh Ke Prmukh Shask
- संस्थापक - कलिंगराज
- शासनकाल - 1000 -से 1741 तक
- धर्म - शैव
- कुलदेवी - गजलक्ष्मी
- राजकीय भाषा - संस्कृत
- प्रथम राजधानी - तुम्माण
कलिंगराज Kalingaraj
- शासन काल 1000 - 1020 ई. तक।
- कलिंगराज कोकक्ल II के पुत्र थे।
- जिसने दक्षिण कोशल को जीतकर तुम्माण को राजधानी बनाया।
- दक्षिण कोशल में कलचुरी वंश के वास्तविक संस्थापक।
- परममहेश्वर की उपाधि धारण की थी।
- कलिंगराज की राजधानी तुम्माण थी।
- अमोदा से प्राप्त ताम्रपत्र से कलिंगराज की जानकारी मिलती है।
कमल राज Kamal Raj
- शासनकाल - 1020 से 1045 ई तक।
- राजधानी - तुम्माण।
- कमल राज ने त्रिपुरी राजा के ओडिशा अभियान में सहायत की थी। इस अभियान में उत्कल नरेश को पराजित किया था।
- कमलराज ने त्रिपुरी के कलचुरी शासक गांगेयदेव के स्वामित्व को स्वीकार किया। गांगेयदेव के उड़ीसा अभियान में साथ दिया।
रत्नदेव प्रथम Ratnadev I
- शासनकाल 1045 से 1065 तक।
- उत्तराधिकारी - कमलराज का पुत्र।
- राजधानी तुम्माण से रतनपुर को नई राजधानी बनाया।
- स्थापत्य - महामाया मदिर का मिर्माण , तुम्माण में शिव मंदिर का निर्माण , महिषासुर मर्दनी मंदिर लाफागढ़ (कोरबा)।
- साक्ष्य - जाज्ज्वल देव प्रथम के रतनपुर अभिलेख से प्राप्त होता है की कमल राज के पुत्र का नाम रत्नदेव।
- सन 1050 में मणिपुर नमक प्राचीन ग्राम को नगर के रूप में बसाया और उसे रतनपुर का नाम दिया। जिसका पूर्व में नाम कुबेरपुर था।
- रत्नदेव प्रथम का विवाह कोमोमण्डल के अधिपति वज्जुक या वजूवर्मन की पुत्री नोनवल्ला से हुआ।
- रत्नदेव के शासन काल में रतनपुर नगर की सम्पन्नता को देखकर नगर को कुबेरपुर कहा जाता था।
पृथ्वी देव प्रथम Prithvi Dev I
- शासनकाल 1065 से 1095 तक।
- उत्तराधिकारी रत्नदेव का पुत्र।
- पृथ्वीदेव प्रथम ने सकलकोसलाधिपति और प्रचंड कोसलाधिपति की उपाधि धारण की थी (यही उपाधि पाण्डु वंश के शासक महाशिव तीवरदेव ने भी धारण की थी। )
- अमोदा से प्राप्त ताम्रपत्र अभिलेखों में उन्हें 21 हजार ग्रामो का शासक बताया गयाहै।
- निर्माण - पृथ्वीदेव प्रथम ने तुम्माण में पृथ्वीदेवेश्वर नमक मंदिर की निर्मण कराया ,रतनपुर में विशाल सरोवर का निर्माण कराया।
- चित्तौड़गढ़ (लाफागढ़) का किला निर्माण। इसके तीन मुख थे मेनका दरवाजा, सिंहद्वार और हुंकार द्वार।
जाज्ज्वल देव प्रथम Jajwal Dev I
- शासनकाल 1095 से 1020 तक।
- उत्तराधिकारी पृथ्वीदेव प्रथम।
- कलचुरी वंश का सबसे शक्तिशाली राजा।
- जाज्ज्वल देव प्रथम ने गज सार्दूल की उपाधि धारण की थी।
- जाज्ज्वल देव प्रथम के गुरु रूद्रशिव और मंत्री पुरुषोत्तम।
- स्वर्ण सिक्के इसी के शासनकाल में पहली बार छत्तीसगढ़ में चलाये गए।
- सोने के सिक्के में अंकित श्री मज्जा जाज्ज्वल्य देव और गज।
- जाज्ज्वल देव प्रथम ने पाली के शिवमंदिर का जीर्णोद्धार कराया।
- जाज्ज्वल देव प्रथम ने जाजल्यपुर नगर बसाया (जांजगीर)।
- बस्तर के छिन्दक नागवंशी राजा सोमेश्वर को पराजित किया।
- जाजल्यदेव ने छिंदक नागवंशी शासक सोमेश्वर देव को पराजित किया।
रतन देव द्वितिय Ratn Dev II
- शासनकाल 1120 से 1135 तक।
- उत्तराधिकारी जाज्ज्वल देव प्रथम का प्रथम पुत्र।
- त्रिपुरी के कलचुरी राजाओं की सत्ता से इंकार कर दिया।
- त्रिपुरी राजा गयाकर्ण ने रतनपुर में आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में रतनदेव द्वितीय विजयी रहे और छत्तीसगढ़ में स्वतन्त्र कलचुरी राजवंश की स्थापना हुई।
- रतन देव द्वितिय के सामंत वल्लभ राज ने कोटगढ़ में तालाब का निर्माण कराया और अकलतरा में सूर्य पुत्र रेवन्त का मंदिर बनवाया।
- रतन देव द्वितिय ने गोंड राजाओ को पराजित किया।
- रतन देव द्वितिय विद्या और कला प्रेमी।
पृथ्वी देव द्वितीय Prithvi Dev II
- शासनकाल 1135से 1165 तक।
- कलचुरियो के प्राप्त अभिलेखों में सर्वाधिक अभिलेख इन्ही के है।
- चांदी का छोटा सिक्का चलाया।
- सेनापति जगतपाल देव ने विलासतुंग द्वारा स्थापित राजीव लोचन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इसकी जानकरी राजिम के शिलालेख से मिलती है।
- पृथ्वी देव द्वितीय के मंत्री और सेनापति जगतपाल देव ने सराहागढ़ (सारंगढ़) ,काकारय(कांकेर) भ्रमरकुट(बस्तर) को जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया।
- कलचुरिय साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार पृथ्वी देव द्वितीय के शासनकाल में हुआ।
- पृथ्वी देव द्वितीय ने रतनपुर में रतनपुर किले का निर्माण करवाया जिसे गजकीला के नाम से भी जाना है।
जाज्ज्वल्य देव द्वितीय Jajwl Dev II
- शासन काल - 1165 से 1168 तक।
- जाज्ज्वल्य देव द्वितीय ने एक युद्ध लड़ा त्रिपुरी के कलचुरी शासक जयसिंह के साथ जिसमे जयसिंह परास्त हुआ और वापस लौट गया यह युद्ध शिवरीनारायण के मध्य हुआ था। इसकी जानकारी शिवरीनारायण अभिलरख से प्राप्त होता है।
- जाज्ज्वल्य देव द्वितीय ने शिवरीनारायण में चंद्रचूड़ मंदिर का निर्माण करवाया।
- सबसे कम समय राज्य किया ।
जगदेव Jaydev
- शासनकाल -1168 से 1178 तक।
- जाज्ज्वल्य देव की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात रतनपुर में अशांति फैल गयी थी । जिसके कारण उसके बड़े भाई जगदेव को वापस आकर शासन अपने हाथों में लिया।
रत्नदेव तृतीय Ratndev III
- शासनकाल 1178 से 1198 तक।
- ये जगदेव के पुत्र थे इनकी मा का नाम सोमल्ल था।
- रत्नदेव तृतीय का उल्लेख खरौद के लखनेश्वर मंदिर की दीवार पर जेड शिलालेख से मिलती है।
- रत्नदेव तृतीय ने उड़ीसा के ब्राम्हण गंगाधर राव को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
- रत्नदेव तृतीय ने खरौद में लखनेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।
- रत्नदेव तृतीय ने रतनपुर में लखनीदेवी (एकवीरा) मंदिर का निर्माण किया।
- रत्नदेव तृतीय के शासन काल में भयंकर आकाल पड़ा।
प्रतापमल्ल Prtapmall
- शासनकाल 1198 से 1222 तक।
- रत्नदेव का पुत्र था।
- प्रतापमल्ल ने अल्पायु में राजकाज प्राप्त कर लिया इससे संबंधित तीन अभिलेख प्राप्त होते है। पेंड्रा बन्ध कोनारी और पवनि(भिलाइगढ़) प्राप्त होते है।
- प्रतापमल्ल ने तांबे की सिक्का चलाया जिसमे सिंह और कटार की आकृति बनवाई।
Note - प्रतापमल्ल के बाद के शासकों का इतिहास लिखित रूप से प्राप्त नही होता है। इसलिए इस समय को कई विद्वानों ने अंधायुग कहा है । लगभग ये 1222 से 1480 तक का समय रहा।
बाहरेन्द्र साय Bahrendr Say
- शासनकाल 1480 से 1544 तक।
- बाहरेन्द्र साय का अन्यनाम बाहर साय भी था।
- बाहरेन्द्र साय ने अपनी राजधानी रतनपुर से हस्तांतरित कर छुरी कोसगई में कर लिया।
- बाहरेन्द्र साय ने कोसगई माता का मंदिर भी बनवाया।
- बाहरेन्द्र साय ने कोसगाई कम कोषागार का निर्माण करवाया।
- बाहरेन्द्र साय ने चैतुरगढ़ का किला का निर्माण किया।
कल्याण साय Kalyan Say
- शासनकाल 1544 से 1581 तक।
- कल्याण साय जहाँगीर के समकालीन थे।
- कल्याण साय ने राजस्व की जमाबंदी प्रणाली की शुरवात की।
- छत्तीसगढ़ का प्रथम बंदोबस्त अंग्रेज अधिकारी म. चिषम जो अंग्रेज थे।
- ब्रिटिश अधिकारी म. चिषम ने जमाबंदी प्रणाली के आधार पर प्रदेश को 36 गढ़ो में विभाजित। किया बंदोबस्त के आधार पर म. चिषम ने शिवनाथ नदी की उत्तर में 18 गढ़ मुख्यालय रतनपुर और दक्षिण में 18 गढ़ जिसका मुख्यालय रायपुर को बनाया गया ।
- जहाँगीर ने इसे 8 वर्षो तक नजरबंद किया था. (गोपपला गीत के अनुसार )।
लक्ष्मणसाय Laxmanasay
- देश में बही-खाता और लेखा-जोखा बजट प्रणाली की शुरुआत की।
तख्त सिंह Takht Singh
- शासनकाल 1685 से 1689 तक था।
- तख्तसिंह औरंगजेब के समकालीन था।
- तख्तसिंह ने तखतपुर नगर की स्थापना की थी।
राज सिंह Raj Singh
सरदारसिंह Sardar Singh
- शासनकाल - 1712 से 1732 तक।
- सरदारसिंह का कोई विशेष उल्लेखनिय घटना ज्ञात बनहि होती है।
रघुनाथ सिंह Raghunath Singh
- शासनकाल - 1732 से 1745 तक।
- रघुनाथ सिंह कलचुरी वंश के रतनपुर शाखा के अंतिम स्वतन्त्र शासक थे।
- मराठा वंश की स्थापना 1742 में बिम्बाजी भोसले के सेनापति भास्कर पंत ने आक्रमण किया जिसमे रघुनाथ सिंह की हार हुई इस प्रकार रतनपुर शाखा के कलचुरी वंश का अंत और मराठा प्रशासन प्रारम्भ हुआ।
मोहन सिंह Mohan Singh
- शासनकाल 1745 से 1757 तक।
- कल्चुरियों की समाप्ति का षड़यंत्र मोहन सिंह ने ही रचा था मराठो को आक्रमण हेतु इन्होने ही आमंत्रित किया था।
- मोहन सिंह की मृत्यु 23 जनवरी 1757 को हुई।
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रायपुर शाखा के कलचुरी वंश Kalchuri Dynasty of Raipur Branch
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश 14 शताब्दी में दो शाखा में बंट गयी पहला शाखा रतनपुर में शासन किया और दूसरा रायपुर क्षेत्र में शासन करने लगा। रायपुर शाखा के नरेशों का शिलालेख रायपुर और खल्लारी से प्राप्त होता है।
रायपुर से प्राप्त अभिलेख 1415 ई.का है। ये अभिलेख रायपुर शाखा के कलचुरी शासक ब्रम्हदेव के काल के है। इस शाखा के अंतिम शासक अमरसिंह है जिसे रघुजी भोसले द्वितीय के हाथो 1750 ई में हार का सामना कारना पड़ा और अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने लगा। जो की मराठा शासक के अधीन रह कर किया।
बाबू रेवाराम के इतिहास के अनुसार रतनपुर के कलचुरी नरेश जगन्नाथ सिंह देव के दो पुत्र 1 वीरसिंह देव और 2 देव सिंह देव, रतनपुर की गद्दी में जेष्ठ पुत्र होने के कारण वीरसिंघ को मिली ,और इस तरह राज्य का बटवारा हो गया।
देवसिंह देव को दक्षिण भाग मिला जो की शिवनाथ नदी के दक्षिण में स्थित था ,शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण के हिसाब से बटवारा हुआ था।
मुख्य संस्थापक - केशव देव
राजधानी - खल्लारी (महासमुंद)
रायपुर से प्राप्त अभिलेख 1415 ई.का है। ये अभिलेख रायपुर शाखा के कलचुरी शासक ब्रम्हदेव के काल के है। इस शाखा के अंतिम शासक अमरसिंह है जिसे रघुजी भोसले द्वितीय के हाथो 1750 ई में हार का सामना कारना पड़ा और अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने लगा। जो की मराठा शासक के अधीन रह कर किया।
बाबू रेवाराम के इतिहास के अनुसार रतनपुर के कलचुरी नरेश जगन्नाथ सिंह देव के दो पुत्र 1 वीरसिंह देव और 2 देव सिंह देव, रतनपुर की गद्दी में जेष्ठ पुत्र होने के कारण वीरसिंघ को मिली ,और इस तरह राज्य का बटवारा हो गया।
देवसिंह देव को दक्षिण भाग मिला जो की शिवनाथ नदी के दक्षिण में स्थित था ,शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण के हिसाब से बटवारा हुआ था।
मुख्य संस्थापक - केशव देव
राजधानी - खल्लारी (महासमुंद)
रायपुर शाखा के प्रमुख शासक Chief ruler of Raipur branch
- लक्ष्मीदेव - 1300 से 1340 तक
- सिंघनदेव -1340 से 1380 तक
- रामचंद्र देव - 1380 से 1400 तक
- हरिब्रम्ह देव - 1400 से 1420 तक
- केशव देव - 1420 से 1438 तक
- भुनेश्वर देव - 1438 से 1468 तक
- मानसिंह देव - 1468 से 1478 तक
- संतोष सिंह दे - 1478 से 1498 तक
- सूरत सिंह देव - 1498 से 1518 तक
- सैनीसिंह देव - 1518 से 1563 तक
- चामुण्डा नसंहिेव 1518 से 1563 तक
- वंशी नसंहिेव 1563 से 1582 तक
- धन नसंहिेव 1582 से 1604 तक
- जैतसिंह देव 1604से 1615 तक
- फत्ते नसंहिेव 1615 से 1636 तक
- यादसिंह देव 1636 से 1650 तक
- सोमदत्त देव 1650 से 1663 तक
- बलदेवसिंग देव 1663 से 1682 तक
- उमेंद सिंह देव 1685 से 1705 तक
- बनवीरसिंह देव 1705 से 1741 तक
- अमर सिंह देव 1741 से 1753 तक (अंतिम कलचुरी शासक)
रायपुर कलचुरी शासन के अंतिम शासक अमरसिंह देव था जिसे बिम्बा जी द्वितीय ने हराया था।कलचुरियो की रायपुर या लहुरी शाखा Kalchurio's raipur or lahuri branch
kalchuri vansh in chattiisgarh कलचुरी शासक वीरसिंह देव के शासन में रतनपुर शाखा का विभाजन हो गया। दूसरी शाखा को लहुरी या रायपुर शाखा कहा गया।केशव देव Keshav Dev
- केशव देव को लहुरी शाखा का संस्थापक माना जाता है।(परम्परागत रूप से )
- लहुरी शाखा की राजधानी - खल्लवाटिका (खल्लारी )
- जबकि आयोग द्वारा रामचंद्र की संस्थापक के रूप में लिया गया है।
रामचंद्र देव Ramchandr Dev
- इसे कलचुरियों की लहुरी शाखा के वास्तविक संस्थापक है। (cg psc के अनुसार )
- रामचंद्र देव ने रायपुर नगर ब्रम्ह देव के नाम पर बसाया।
- रामचंद्र देव के पिता सिंघनदेव थे।
ब्रम्हदेव Brmhadev
- ब्रम्हदेव के नाम पर रायपुर नगर को रामचंद्र देव ने बसाया।
- ब्रम्हदेव ने रायपुर को राजधानी सन 1409 में बनाया।
- ब्रम्हदेव के शासनकाल में देवपाल नामक मोची ने सन 1415 में विष्णु मंदिर का निर्माण खल्लारी (महासमुंद) में किया।
अमर सिंह Amar Singh
- रायपुर के लहरी शाखा के अंतिम राजा।
- मराठो ने सन 1750 में हराया।
- रायपुर, राजिम और पाटन की जमींदारी दे दी और 7000 रूपये अमर सिंह के जीविक चलने के लिए दे दी।
कलचुरियो का प्रशासन व्यवस्था
कलचुरियो ने इस प्रदेश में सबसे अधिक समय तक शासंन किया। इनकी शासन व्यवस्था राजतांत्रिक थी. जिसमे प्रशासन की छोटी इकाई ग्राम थी जिसके मुखिया को गौटिया कहा जाता था. सम्पूर्ण राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए गढ़ में विभाजित थे।राज्य के कार्यों के संचालन एवं प्रबन्ध हेतु राजा को योग्य एवं विश्वस्त सलाहकारों एवं अधिकारियों की आवश्यकता होती थी। नियुक्तियां योग्यतानुसार होती थीं , किन्तु छोटे पदों पर जैसे-लेखक, ताम्रपत्र लिखने वाले आदि की नियुक्तियां वंश परम्परा अनुसार होती थी।
ग्राम
- ग्राम के प्रमुख गौटिया होते थे।
- 12 ग्रामों के समूह को बारह कहा जाता था। इसके प्रमुख को दाऊ/तालुकाधिपति कहते थे।
- 7 बारह मिलकर अर्थात 84 गाँवो को मिलाकर गढ़ होता था. जिसके मुखिया को दीवान होता था।
- 1 लाख गाँवो को मिलाकर एक मण्डल बनता था. ये प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई होती है, इसके प्रधान को महामंडलेश्वर कहते थे।
- ग्रामीण प्रमुख ग्रामकुट होते थे जो गौटिया के आधीन होते थे।
- नगर प्रमुख पुर प्रधान कहलाते थे।
- कलचुरियो के शासन व्यवस्था में स्थानीय प्रशासन के लिए पंचकुल नामक संस्था थी।
- पंचकुल में पांच से दस सदस्य हो सकते थे. पंचकुल के सदस्य को महत्तर और पंचकुल के प्रमुख को महत्तम कहते थे।
कलचुरियो के मंत्रिमंडल
इसमें युवराज , महामन्त्री , महामात्य , महासन्धिविग्रहक (विदेश मंत्री), महापुरोहित (राकजगुरु), जमाबन्दी का मंत्री (राजस्व मंत्री) , महाप्रतिहार , महासामन्त और महाप्रमातृ आदि प्रमुख थे।
- महामात्य - प्रमुख मंत्री (राजा का प्रशासनिक सलाहकार )
- महासंधिविग्राहक - विदेश मंत्री
- महाध्यक्ष - सचिवालय प्रधान
- महाप्रतिहार - संचार विभाग का प्रधान
- शोलकिक - कर अधिकारी
- महापुरोहित - धार्मिक विभाग के प्रमुख
- गमागमिक - यातायात अधिकार।
अधिकारी
- इसमें अमात्य एवं विभिन्न विभाग विभागाध्यक्ष होते थे।
- महाध्यक्ष नामक अधिकारी सचिवालय का मुख्य अधिकारी होता था।
- महासेनापति अथवा सेनाध्यक्ष सैन्य प्रशासन का व दण्डपाषिक अथवा दण्डनायक आरक्षी (पुलिस) विभाग का प्रमुख , महाभाण्डागारिक , महाकोट्टापाल (दुर्ग या किले की रक्षा करने वाला) आदि अन्य विभागाध्यक्ष होते थे।
- अमात्य शक्तिशाली होते थे।
यातायात प्रबन्ध
- यातायात प्रबन्ध का अधिकारी ' गमागमिक ' कहलाता था , जो गांव अथवा नगर से आवागमन पर नजर रखता था।
- यह अवैध सामग्री एवं हथियारों को जब्त करता था।
राज कर्मचारी
- प्रायः सभी ताम्रपत्रों में चाट , भट , पिशुन ,वेत्रिक, आदि राजकर्मचारियों का उल्लेख मिलता है , जो राज्य के ग्रामों में दौरा कर सम्बंधित दायित्वों का निर्वाहन करते थे।
- आय के स्रोत आय और उत्पाद के अनेक संसाधन थे। नमक कर , खान कर (लोहे , खनिज आदि पर) वन, चरागाह,बागबगीचा,आम,महुए आदि पर लगने वाले कर राज्य की आय के स्रोत थे।
- गांव में उत्पादित वस्तुओं पर निर्यात कर और बाहर की वस्तुओं पर आयात कर लगता था , जिस पर शासन का अधिकार होता था।
- नदी के पार करने पर तथा नाव आदि पर भी कर लगाया जाता था।
- इसके अतिरिक्त मण्डीपिका अथवा मण्डी में माल की बिक्री के लिए आई हुई सब्जियों / सामग्रियों पर कर, हाथी , घोड़ें आदि जानवरों पर बिक्री कर लगाया जाता था।
- प्रत्येक घोड़े के लिए 2 पौर (चांदी का छोटा सिक्का) और हाथी के लिए 4 पौर कर लगाया जाता था।
- मण्डी में सब्जी बेचने के लिए (युगा) नामक परवाना (परमिट) लेना पड़ता था , जो दिनभर के लिए होता था।
- 2 युगवों के लिए एक पौर दिया जाता था।
न्याय व्यवस्था
- प्राचीन कलचुरीन कालीन न्याय व्यवस्था से सम्बंधिक जानकारी शिलालेख से प्राप्त नही होती है।
- दाण्डिक नामक एक अधिकारी न्याय अधिकारी होता था।
धर्म विभाग
- धर्म विभाग का अधिकारी पुरोहित होता था।
- दानपत्रों में इन अधिकारी का उल्लेख प्राप्त होता है। दानपत्रों का लेखा-जोखा तथा हिसाब रखने के लिए ' धर्म लेखि ' नामक अधिकारी होते थे।
युद्ध एवं प्रतिरक्षा प्रबन्ध
- हाथी,घोड़े,रथ,पैदल चतुरंगिणी सेना का संगठन अलग-अलग अधिकारी के हांथ में रहता था।
- महावतों का बहुत अधिक महत्व था।
- सर्वोच्च सेनापति राजा होता था, जबकि सेना का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति , साधनिक या महासेनापति कहलाता था।
- हस्तीसेना का प्रमुख महापिलुपति तथा अश्वसेना प्रमुख ' महाश्वसाधनिक ' कहलाता था।
- बाह्य शत्रुओं से रक्षा हेतु राज्य में पुर अर्थात नगर दुर्ग का निर्माण किया जा था जैसे तुम्मान ,रतनपुर ,जाजल्यपुर, मल्लालपत्तन आदि।
- पन्द्रहवीं सदि में तो रतनपुर नरेश बाहरसाय ने सुरक्षा की दृष्टि से कोसंगईगढ़ (छुरी) में अपना कोषागार बनवाया था।
राष्ट्र प्रबन्ध
- विदेश विभाग को ' सन्धि विग्रहाधिकरण ' के नाम से जाना जाता था।
- सन्धि-सुतक-विग्रह-युद्ध इस विभाग के प्रमुख कार्य थे।
- इसके मुख्य अधिकारी को महासंधिविग्रहिक के नाम से पुकारा जाता था।
पुलिस प्रबन्ध
- कानून एवं शांति व्यवस्था बनाए रखने हेतु पुलिस अधिकारी दण्डपाशिक, चोरों को पकड़ने वाला अधिकारी दुष्ट-साधक सम्पत्ति रक्षा के निमित्त पुलिस और नगरों मे सैनिक नियुक्त किये जाते थे।
- दान दिए गए गांवों में इनका प्रवेश वर्जित था।
- राजद्रोह आदि के मामले में ये बेधड़क कहीं भी आ-जा सकते थे।
राजस्व प्रबन्ध
- विभाग का मुख्य अधिकारी ' महाप्रमातृ ' होता था , जो भूमि की माप करवाकर लगान निर्धारित करता था।
स्थानीय प्रशासन
- प्रत्येक विभाग के लिए एक पचंकुल या कमेटी होती थी जिसकी व्यवस्था और निर्णयों के क्रियान्वयन के लिए राजकीय अधिकारी होते थे।
- इनमें प्रमुख अधिकारी-मुख्य पुलिस अधिकारी , पटेल तहसीलदार, लेखक या करणिक, शुल्क ग्राह अर्थात छोटे-मोटे करों को उगाहने वाला तथा प्रतिहारी अर्थात सिपाही होते थे।
- नगर के प्रमुख अधिकारी को पुरप्रधान तथा ग्राम प्रमुख को ग्राम कूट या ग्राम भोगिक , कर वशुल करने वाले को शोल्किक , जुर्माना दण्डपाशिक के द्वारा वसूला जाता था।
- गांव जमीन आदि की कर वसूली का अधिकार पांच सदस्यों की एक कमेटी को था।
- पञ्च कुल के सदस्य महत्तर कहलाते थे। इनका चुनाव नगर व गांव की जनता द्वारा होता था। इसके प्रमुख सदस्य महत्तम कहलाते थे।
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